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________________ ><><> जैन- गौरव स्मृतियां ★>> (५) स्वामी विरूपांत वर्डीयर धर्मभूषण, वेदतीर्थ, विद्यानिधि, एम. ए., प्रोफेसर संस्कृत कालिज, इन्दौर, 'चित्रमय जगत्' में लिखते हैं । . " - द्वे के कारण धर्म प्रचार को रोकने वाली विपत्ति के रहते हुए भी जैनशासन कभी पराजित न होकर सर्वत्र विजयी होता रहा है । अर्हन् देव साक्षात् परमेश्वर स्वरूप हैं । इसके प्रमाण भी आर्य-ग्रन्थों में पाये जाते हैं । हन्त परमेश्वर का वर्णन वेदों में भी पाया जाता है । रिषभदेव का नाती मरीचि प्रकृतिवादी था और वेद उसके तत्त्वानुसार हो सके, इस कारण ही रिगवेद आदि ग्रन्थों की ख्याति उसी के ज्ञान द्वारा हुई है । फलतः मरीचि रिषि के स्तोत्र वेद, पुराण आदि ग्रन्थों में हैं और स्थान २ पर जैन तीर्थङ्करों का उल्लेख पाया जाता है, तो कोई कारण नहीं है कि वैदिक काल में जैनधर्म का अस्तित्व न मानें ।" (६) मेजर जनरल जे. जी. आर. फार लांग एफ. आर. एस. ई, एफ. आर. ए. एस. एम. ए. डी. 'शार्ट स्टडीज इन दी साइन्स ऑफ कम्पेरीटिव ... रिलिजन्स्, के पृ० २४३ में लिखते हैं: : ' अनुमानतः ईसा से पूर्व के १५०० से ८०० वर्ष तक बल्कि अज्ञात समय से सर्व उपरी पश्चिमीय, उत्तरीय, मध्यभारत में तूरानियों का "जो आवश्यकतानुसार द्राविड़ कहलाते थे, और वृक्ष, सर्प और लिंग की पूजा करते, थे, शासन था ।" परन्तु उसी समय में सर्व ऊपरी भारत में एक प्राचीन, सभ्य, दार्शनिक और विशेषतया नैतिक सदाचार व कठिन तपस्या वाला धर्म अर्थात् जैनधर्मं भी विद्यमान था, जिसमें से स्पष्टतया ब्राह्मण और बौद्ध धर्मों के प्रारम्भिक सन्यास भावों की उत्पत्ति हुई । आर्यों के गंगा क्या सरस्वती तक पहुंचने के भी बहुत समय पूर्व जैनी अपने २२ बौद्धों संतों तीर्थकरों द्वारा जो ईसा से पूर्व की ८-६ शताब्दी के २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ से पहले हुये थे - शिक्षा पा चुके थे । उक्त विद्वानों के अभिप्रायों से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्मति प्राचीन धर्म है। ये इतिहासकार, संशोधक और पुरातत्व के ज्ञाता अजैन हैं अतएव पक्षपात की आशंका नहीं हो सकती । इन विद्वानों ने अपने निष्पक्ष अनुसन्धान के आधार पर अपने अभिप्राय व्यक्त किये हैं । इससे यह भलि भांति प्रमाणित हो जाता है कि जैनधर्म सृष्टि-प्रवाह के समान ही अनादि है, अतएव प्राचीन: है । YA(७६)X
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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