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★ जैन- गौरव-स्मृतियाँ
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मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश इन पभाषाओं का व्याकरण है। प्रथम सात प्राध्यायों की सूत्र संख्या ३५६६ हैं और आठवें अध्याय में १९१६ सूत्र हैं । सम्पूर्ण मूलग्रन्थ ११०० लोक प्रसारण है। इस पर आचार्य श्री ने दो वृत्तियाँ लिखी हैं । वृहद् वृत्ति १८००० लोक प्रमाण हैं और छोटी ६००० लोक प्रमाण हैं । धातुज्ञान के लिए धातु पारायण ५००० लोक प्रमाण हैं । उपादि सूत्र २०० लोक प्रमाण हैं । ललित छन्दों में रचित लिंगानुशासन तीन हजार लोक प्रमाण टीका से युक्त हैं । इस व्याकरण पर आचार्य श्री ने वृहन्न्यास नामक विस्तृत विवरण ८४००० श्लोक प्रमाण लिखा था किन्तु दुर्भाग्य से वह उपलब्ध नहीं है । उसका थोड़ा सा भाग पाटन और राधनपुर के भण्डारों में हैं ऐसा सुना जाता है । इस प्रकार सम्पूर्ण कृति १ लाख २५ हजार श्लोक प्रमाण है । इस व्याकरण की रचना में आचार्य श्री की प्रकप्रतिभा का पद-पद पर परिचय मिलता है 1
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काव्य कृतियाँ - अपने व्याकरण में आई हुई संस्कृत शब्दसिद्धि और प्राकृत रूपों का प्रयोगात्मक ज्ञान कराने के लिए संस्कृत द्वयाश्रय और प्राकृत, द्वय नामक दो उत्कृष्ट महाकाव्यों की आचार्य श्री ने रचना की है । काव्य कला की दृष्टि से दोनों श्रेष्ठ कोटि के महाकाव्य हैं। संस्कृत काव्य, पर अभयतिलक गरि ने सतरह हजार पांचसौ चहोत्तर श्लोक प्रमाण टीका लिखी हैं और प्राकृत काव्य पर पूर्णकलश गणि ने चार हजार दो सौ तीस लोक प्रमाण टीका लिखी हैं। गुजरात के इतिहास की दृष्टि से भी इन काव्यों का पर्याप्त महत्त्व है ।
कोप ग्रन्थ :- व्याकरण और काव्य रूप ज्ञानमन्दिर के स्वर्णकलश के समान चार कोप ग्रन्थों की आचार्य हेमचन्द्र ने रचना की है । अभिधान चिन्तामरिण में ६ काण्ड हैं। अमर कोप की शैली का होने पर भी उसकी अपेक्षा इसमें वोढे शब्द दिये गये हैं । इस पर इस हजार लोक प्रमाण खोपाटीका गी लिखी है। दूसरा कोण 'अनेकार्थ संग्रह' है । इसमें एक ही शब्द के अधिक से अधिक अर्थ दिये गये है । इस पर भी स्वोपज्ञ वृत्ति है । तीसरा कोश "देशी नाम माला " है । इसमें प्राचीन भाषा के ज्ञान हेतु देशी शब्द हैं। चौथा कोप निघण्टु हैं जिसमें वनस्पतियों के नाम और भेदादि