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जैन-गौरव-स्मृतियां
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अहं न्विभषि सायकानि धन्वाह भिष्कं यजतं विश्वरूपम् (अ.१ अ.६ व. १६) अह न्निदं दयसे विश्वं भवभुवं न वा ओजीयो रुद्रत्वदास्ति (अ. २ अ. ७. व. १७) . . अर्थ-हे अहंनदेव ! तुम धर्मरूपी वाणों को, सदुपदेश रूप धनुष को, अनन्त तानरूप आभूषण को धारण किये हुए हों।हे. अहंन ! आप जगत्प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त हो, संसार के जीवों के रक्षक हो, काम क्रोधादि शत्रु समूह के लिए भंयकर हो, आपके समान अन्य बलवान नहीं है। - ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा । वामदेव शान्त्यर्थ मनुविधीयते. सोऽस्माकं अरिष्टनेमि स्वाहा।
ॐ त्रैलोक्य प्रतिष्ठितान् चतुर्विशति तीर्थकंरान् रिषभाद्या वर्द्धमानान्तान् सिध्दान् शरणं प्रपघे।
. ॐ नमो अहं तो रिषभो ॐ रिषभ पवित्रं पुरु हुत मध्वरं यज्ञेषु नग्नं परंम माहसं स्तुतं वारं शत्रु जयन्तं पशुरिन्द्रमाहु रिति स्वाहा।
ॐ स्वस्तिन इन्द्रो वृध्दश्रवाः स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्ताक्ष्यों . अरिष्ठ नेमिः स्वास्तिनो बृहस्पतिर्दधातु। .... इत्यादि बहुत से वेदमंत्रों में जैन तीर्थंकर श्री रिषभदेव, सुपार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि आदि तीर्थङ्करों के नाम आये हैं। इन तीर्थङ्करों के प्रति पूज्य भाव रखने की प्रेरणा करने वाले कतिपय वेदसंन पाये जाते हैं। इन सब प्रमाणों पर से यह प्रतीत होता है कि वेदों की रचना के पूर्व भी जैनधर्म बड़े प्रभाव के साथ. व्याप्त था तभी तो वेदों में उनके नाम बड़े आदर के
साथ उल्लिखित हुए हैं। इन बातों का विचार करने पर कोई भी निष्पक्ष - वेदानुयायी यह नहीं कह सकता है कि जैनधर्म वैदिक धर्म के बाद उत्पन्न हुआ है। वेदों में जो प्रमाण दिये गये हैं वही इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है. कि जैनधर्म अति प्राचीन काल से चला आता है। जिस वैदिक धर्म को प्राचीन बतलाया जाता है उससे भी पहले जनधर्म अस्तित्व रखता था। ... जनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए पाश्चात्य और पौर्वात्य पुरातत्वविदों और इतिहास कारों ने जो अभिप्राय व्यक्त किये हैं उनका दिग्दर्शन कराना अप्रासंगिक नहीं होगा।
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