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* जैन-गौरव-स्मृतियां R
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) द्वारा पूजित, तीन नीतियों के विधाता प्रथम जिनेश्वर अर्थात् रिषभनाथ
सत्युग के प्रारम्भ में हुए। .. रिषभ' शब्द के सम्बन्ध में शंका को अवकाश ही नहीं है । वाचस्पति कोष में 'रिपसदेव' का अर्थ 'जिनदेव' किया है। और शब्दार्थ चिन्तामणि में 'भगवदवतारयेदे आदिजिने अर्थात् भगवान् का अवतार और प्रथम जिनेश्वर किया गया है।
. पुराणों के उक्त अवतरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुराणकाल के पहले जैनधर्म था । इसके अतिरिक्त भागवत के पांचवे स्कन्ध के चौथे पांचवें और छठे अध्याय में प्रथम तीर्थङ्कर रिषभदेव को आठवां अवतार बतलाकर उनका विस्तृत वर्णन किया गया है । भागवत पुराण में यह लिखा है कि 'सृष्टि की आदि में ब्रह्म ने स्वयंम्भू मनु और सत्यरूपा को उत्पन्न किया । रिषभदेव इनसे पांचवीं पीढ़ी में हुए। इन्हीं रिषभदेव ने जनधर्म का प्रचार किया। इस पर से यदि हम यह अनुमान करें कि प्रथम जैन तीर्थकर रिषभदेव मानव जाति के आदि गुरु थे तो हमारा विश्वास है कि इस कथन में कोई अत्युक्ति न होगी।
दुनिया के अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि आधुनिक उपलब्ध समस्त ग्रन्थों में वेद सबसे प्राचीन है अतएव अब वेदों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे कि वेदों की उत्पत्ति के समय जैनधर्म विद्यमान था । वेदानुयायियों की मान्यता है कि वेद ईश्वर-प्रणीत हैं। यद्यपि यह मान्यता केवल. श्रद्धागम्य ही है तदपि इससे यह सिद्ध होता है कि सृष्टि के प्रारम्भ से ही जैनधर्म प्रचलित था क्योंकि रिग्वेद, यजुर्वेद, और सामवेद
और अथर्ववेद के अनेक मन्त्रों में जन तीर्थङ्करों के नामों का उल्लेख पाया जाता है। रिग्वेद में कहा है:
... आदित्या त्वगसि आदित्यसद् आसीद अस्त भ्रादद्या वृषभो तरिक्षं जमिमीते वारिमाणं । पृथिव्याः आसीत् विश्वा भुवनानि समाडिवश्वे. तानि वरुणस्य व्रतानि । ३० । अ०३।। ... अर्थ-तू अखएड पृथ्वी मण्डल का सार त्वचा स्वरूप है, पृथ्वीतल
का भूषण है, दिव्यज्ञान के द्वारा आकाश को नापता है, ऐसे हे वृषभनाथ ५ सम्राट ! इस संसार में जगरक्षक व्रतों का प्रचार करो। .....
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