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'जैन गौरव - स्मृतिया
धानता है । उसके आगम किसी अदृ व्यक्ति के बनाये हुए नहीं हैं अपितु पुरुष -प्रणीत हैं । जिस पुरुष ने रागद्वेष और अज्ञान पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त करली है उस वीतराग पुरुष के द्वारा उपदिष्ट तत्त्व ही आगम है । जिन्होंने राग और द्वेष का निर्मूल उन्मूलन कर वीतरागता प्राप्त की है, वे जिन हैं और उनका उपदेश ही जिनागम है । वीतराग और सर्वज्ञ होने के कारण उनके वचनों में दोष की सम्भावना नहीं, पूर्वापर विरोध नहीं और युक्तिबाध भी नहीं होता । अतः जिनोपदेश ही मुख्यतया जैनागम है ।
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जिनेन्द्र भगवान् उपदेश देकर कृतकृत्य हो जाते हैं । वे मन्थरचना नहीं करते । ग्रन्थरचना तो उनके शिष्य गणधर करते हैं ।
अर्थ भाइ अरहा सुत्तं गन्थन्ति गरणहरा निउणं । सासणास हियट्ठाए त ओ सुतं पवत्तेइ ॥
(आवश्यक नियुक्ति ) अर्थात् — जैनागमों के अर्थोपदेष्टा स्वयं तीर्थङ्कर हैं और सूत्र प्रणेता चतुर्दश पूर्वधर गणधर होते हैं अतः जैनागम तीर्थङ्कर प्रणीत कड़े जाते हैं । इस तरह जैनपरम्परा अपने आगमों को पुरुपप्रणीत मानकर अपनी वैज्ञानिकता द्योतित करती है जबकि ब्राह्मणपरम्परा वेदों को अ.रुपेय मानकर अपनी काल्पनिकता को प्रकट करती है ।
जैनागम वीतराग - पुरुप प्रणीत होने पर भी अनादि-अनन्त हैं । ऐसा कोई समय नहीं या जिसमें द्वादशाङ्गी गणिपिटक न रहा हो, ऐसा कोई समय नहीं है जिसमें यह गणिपटिक नहीं है और ऐसा कोई समय नहीं होगा जिसमें यह नहीं रहगी । यह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत हैं, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य हैं । इसका कारण यह है कि सत्य सदा एकसा ही हैं । देश, काल और दृष्टि के भेद से उसका आविर्भाव विविध रूप में होता है तदपि इन विविध रूपों में भी मूल तत्त्व - सनातन सत्य एक ही रहता है । अतः तीर्थकरों का उपदेश अर्थरूप से एक सा ही होता है। सब तीर्थङ्कर एक ही समान अर्थ का प्ररूपण करते हैं । इस अपेक्षा से जैनागम् अनादि अनन्त है। तीर्थङ्कर- परम्परा की अपेक्षा जैनगम श्रनादि श्रनन्त है। 4 और एक तीर्थदूर की अपेक्षा जैनगम सादि-सान्त भी है।
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