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* जैन-गौरव-स्मृतियाँ
. सिद्धराज की प्रेरणा से आचार्य हेमचन्द्र ने अपना प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ लिखा जिसे उन्होंने "सिद्ध हैमव्याकरण" नाम दिया । जब यह सवा.. लाख श्लोकप्रमाण पञ्चाङ्गपूर्ण व्याकरण ग्रन्थ तय्यार हो गया तो इसे राजा की सवारी के हाथी पर रखकर छत्र और चवर के साथ राजा की सभा में ले जाया गया । विद्वानों के पास से उसका पठन कराकर उसे राजकीय सरस्वतीकोष में आदर पूर्वक स्थापित किया गया। सिद्धराज के समय साहित्य श्री खूब की समृद्धि हुई। .. . . . . . . . . . . .
सिद्धराज के मंत्री अधिकांश जैन ही थे । दण्डनायक के पद को भी जैनवणिक् ही सुशोभित करते थे। कर्णदेव के समय से जैनमहामात्य . मुजाल मंत्री का कुशलता पूर्वक कार्य करते थे । यह मंत्री गुजरात के चाणक्य कहलाये।
. मुजाल के अतिरिक्त शान्तु, उदयन, अशुक, वाग्भट्ट, आनन्द और पृथ्वीपाल, सिद्धपाल के जैनमहामंत्री थे। सिद्धराज ने वनराज के श्रीमाली मंत्री जाँव के वंशज सज्जन को सौराष्ट्र का दण्डाधिप ( जिलाधीश) बनाया था। इससे अपनी कुशलता के द्वारा सोरठ सूवे की आमदनी व्यय करके .. गिरनार के जीर्ण-शीर्ण काष्ठमय मन्दिर का उद्धारकर रमणीय नयामन्दिर वनवा दिया था। सिद्धराज को गिरनार पर ले गया था और उसे कुशलता से प्रसन्नकर जीर्णोद्धार में खर्च की हुई रकम की अनुमति लेली। महामंत्री आशुक की प्रेरणा से जयसिंह ने शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा की और उसकी पूजा के लिए बारह गाँवों की वृत्ति प्रदान की। इसके बाद उसने गिरनार के नेमिजिनेश्वर की यात्रा की थी। ऐसा भी उल्लेख पाया जाता है कि सिद्धराज की सभा में सं० ११८१ में श्री वादिदेवसूरि ( श्वेताम्बर आचार्य) और कुमुदचन्द्र ( दिगम्बराचार्य ) में शास्त्रार्थ हुआ था। उसमें वादि देवसूरि की विजय हुई श्री। सिद्धराज ने देवसूरि को जो जयपत्र और तुष्टिदान ने रूप में एक लाख स्वर्ण मोहर देना चाहा परन्तु जैनसाधु के प्राचार के अनुसार अग्वीकार्य होने से आंशुक महामात्य की सम्मति से सं० ११८३ में सिद्धराज ने उस में से जिन-प्रासाद बंधवाया तथा वैशाख शुक्ला. १२ को उसमें
ऋपभदेव की प्रतिसा प्रतिष्टित की। - KKKekekkeksiks: (३३६) KKKokakkekke