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________________ ★ जैन-गौरव-स्मृतियां * - अतः शिष्य समुदाय ने इस क्षेत्र से शीघ्र वापस लौट जाने की आचार्य श्री से प्रार्थना की। आचार्य श्री भी सहमत हो गये । कहते हैं ऐसे अवसर पर उस प्रदेश की अधिष्ठायिका चामुडादेवी ने प्रकट होकर आचार्य श्री से इसीक्षेत्र में विचरण कर उस अनार्य प्रदेश के उद्धार करने की प्रार्थना की। तव आचार्य श्री ने अपने शिष्यों से कहा-जो साथ रहना चाहें रहें बाकी वापस लौट जाँय । इस पर करीब ३५ शिष्य आचार्य श्री के साथ रहे । इन मुनियों के साथ आचार्य श्री चार २ मास की विकट तपस्या अंगीकार कर समाधि में लीन हो गये । इस बीच देवयोग से एक दिन वहाँ के राना उपलदेव के पुत्र त्रिलोकसिंह को रात में एक भयङ्कर सर्प ने डस लिया । इस राजपुत्र का एकदिन पूर्व मंत्री उहड़देव की कन्या से विवाह हुआ था । राजकुमार की इस असामयिवक मृत्यु से सारे शहर में हाहाकार मच गया । सब प्रयत्न करने पर भी कोई उपचार न हो सका । अन्त में रथी सजा कर स्मशान यात्रा को ले जाने लगे तव किसी ने राजा से उक्त आचार्य श्री से उपचार कराने का परामर्श दिया । सव की सलाह में राजकुमार की रथी प्राचार्य श्री के पास लाई गई । आचार्य श्री के शिष्य वीरधवल ने आचार्य श्री के चरणों का प्रक्षालन कर राजकुमार पर छिड़क दिया राजकुमार चेतन हो उठा । सर्वत्र प्रसन्नता फैल गई। राजा ने प्रसन्न हो कई अमूल्य हीरे जवाहरातों के आभूपण आचार्य श्री के चरणों पर समर्पित किये, पर त्यागियों को इस द्रव्य और वैभव से मोह न था। उन्होंने राजा को प्रतिवोध दिया कि इस नगरी के सब लोग मिथ्यात्व सार्ग तथा सप्तव्यसन आदि कुटेवों को छोड़कर शुद्ध आचारवोन वनें तथा जैनधर्म अंगीकार करें जिससे सब का कल्याण हो। उपस्थित जनसमूह ने हर्पनाद द्वारा यह स्वीकार किया। इस प्रकार उस समय आचाय श्री ने उस विशाल जनसमूह को 'जैनधर्म' में दीक्षित कर उस समह का नाम "महाजन संघ" स्थापित किया । तथ्या यह है कि इस प्रकार जैनचार्य ने एक समूह विशेष का उद्धार कर उसका नामकरण "महाजन संघ" के रूप में किया। यह चमत्कारिक समाचार विजली की तरह आस पास के प्रदेशों में दृर २ तक फैला और सब की श्रद्धा आचार्य श्री के प्रति बढ़ी , इस प्रकार इन प्रदेशों में 'जैनधर्म के अनुयायियों की संख्या अधिकाधिक बढ़ने लगी। kkkkkkkkk (३०५) Kokkkkkosiksksksks
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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