________________
* जैन-गौरव-स्मृतियां★sese
पश्चिमी सभ्यता के प्रवाह में वही जा रही हैं। यह वांछनीय नहीं है । इसमें भारतीय नारी की शोभा नहीं है । नारियों को अपने सामने अपने प्राचीन स्वर्णमय अतीत का आदर्श होना चाहिए । स्त्री और पुरुप में प्रतिस्पर्धा नहीं होनी चाहिए। दोनों सहयोगी और मित्र तुल्य होने चाहिए । नर, पति-स्वामी
और मालिक रहे और नाग. पत्नी-स्वामिनी और मालकिन हो । शिक्षा वही सच्ची शिक्षा है जो मुसंस्कारों को जन्म दे। हमारी गृहदेवियाँ सच्चे अर्थ में शिक्षिता और संस्कारी बनें यह अभीष्ट है।।
उपसंहार में इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि सामाजिक भव्य निर्माण के लिए नारियों की पुनः प्रतिष्ठा करनी चाहिए। प्राचीन जैनसंघ में उसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है उसी के अनुसार हमें नारियोंको महत्व प्रदान कर सर्वोदय की नींव डालनी चाहिए।
प्रमुख जैन जातियां
जैनधर्म अनादि है, जैनधर्म में जाति या वर्णवाद का क्या स्वरूप है आदि विषयों पर पिछले पृष्ठों में पूर्ण प्रकाश डाला जा चुका है।
जैनधर्म प्रचारकों का सदा एक मात्र ध्येय रहा है-- "प्राणी मात्र को चुराईयों से बचाकर महान' बनाना । उन्होंने अपने सिद्धान्तों और उसके अनुयाइयों को किसी जाति नामक विशेष समूह में संगठित करने का या अनुयाइयों की संख्या बढ़ती हुई दिखाई दे ऐसी प्रवृत्ति या प्रयत्न की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया । वे प्रवृत्ति मार्ग से एकदम दूर मात्र निवृत्ति मार्ग के ही पथिक व पथ प्रदर्शक रहे। .. ... ...
अतः जैनधर्म पालकों को किसी जाति विशेष की चाहर दिवारी में, संकुचित नहीं किया जा सकता । 'जैन' शब्द एक विशिष्ट धार्मिक सिद्धान्त के अनुयायी का प्रतिवोधक है । किन्तु काल क्रमानुसार एक समय जातिवाद प्रमुखता में आया और जैनाचार्य उससे विलग न रह सके। आज भारत में कई ऐसे बड़े २ जाति समूह हैं जो शतांश में या मुख्य रूप से जैनधर्मानुयायी हैं। यदि उन समूहों को 'मैनजाति के नाम से पहिचाना