________________
SSC जैन-गौरव-स्मृतियां *S
e
. . कम्मुणा बंभणो होई, कंम्मुणा होइ खत्तिओ। ... बइसो कम्मुणा होइ,. सुद्दो हवइ कम्मुणा ।
.: ( उत्तराध्ययन २५, ३३.) अर्थात्-जन्म की अपेक्षा से सब मनुष्य समान हैं। कोई भी व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र होकर नहीं आता । वर्णव्यवस्था तो मनुष्य के अपने स्वीकृत कर्तव्यों से होती है। मनुष्य अपने कर्तव्यों से ही वाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता है । कर्त्तव्य के बल पर ब्राह्मण शूद्र हो सकता है । और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। . . .
जैन श्रमणसंघ में हरिकेशी और मेतार्य मुनि का महत्वपूर्ण स्थान है । हरिकेशी जन्म से चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुए थे। मेतार्य मुनि भी हीन गिनेजाने वाले कुल में उत्पन्न हुए थे। तदपि जैनधर्म ने इन नीच गिनेजाने वाले कुलों में उत्पन्न होने वालो को श्री श्रमणसंव में महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया । इससे ही स्पष्ट है कि जैनधर्म में जातिवाद को कतई महत्व नहीं है।
हरिकेशी मुनि. के त्यागी और तपस्वी जीवन से बड़े २ सम्राट भी उन्हें अपना गुरु मानते थे और भक्तिभाव पूर्वक उनके चरण-कमलों का स्पर्श करते थे। एक देवता तो उनके तप से इतना प्रभावित हो गया था कि वह सदा इनके समीप ही रहने लगा था। उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णन किया गया है कि हरिकेशी मुनि एक बार जात्यभिमानी ब्राह्मणों के धर्म चाटक में भिक्षार्थ गये । ब्राह्मण- कुमारों ने उनका तिरस्कार किया । उसका दुष्परिणाम उन्हें भोगना पडा । उस समय हरिकेशी मुनि ने उन ब्राह्मण गुरुओं और ब्राह्मणकुमारों को ब्राह्मणत्व, यज्ञ आदि का सच्चा स्वरूप समझाया । वे सब मुनि का उपदेश सुनकर प्रभावित हुए । ब्राह्मण गुरुओं के द्वारा हरिकेशी, मनि को भिक्षा- “दान देने के उपलक्ष में देवताओं ने दिव्यवृष्टि की. और "अहो दानं महादानं" की घोषणा की। इसको लक्ष्य में रखकर भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है।
सक्खं खुदीसइ तवोविसेसो न दीसई जाइविसेस कोवि । सो वाग पुत्तो हरिएस साहू जरसेरिसा इड्टि महाणुभागा॥