________________
S
HAST जैन गौरव-स्मृतियाँ
और
इन दोनों दृष्टियों के सामञ्जस्य के आधार पर ही मोक्षमार्ग की ठीक ठीक। व्यवस्था बन सकती है। .... .. ......
निश्चय दृष्टि से धर्म, निस्संदेह, आत्मा की-व्यक्तिगत-वस्तु है परन्तु . व्यक्ति, समाज से पृथक् नहीं रह सकता है और समाज व्यक्ति के बिना नहीं बन सकता हैं इसलिए धर्म और समाज का सम्बन्ध भी आवश्यक और अनिवार्य है । व्यक्ति समाज की एक इकाई है और इकाईयों का समुदाय ही समाज है अतः व्यक्ति और समाज-दोनों, दोनों के अभिन्न अंग हैं। इसी तरह व्यक्तिगत होते हुए भी धर्म, सामाजिक रूप लिये बिना नहीं रह सकता है। अतः प्रत्येक धर्म का सामाजिक दृष्टिविन्दु भी होता है। कोई भी धर्म । सामाजिक समस्याओं की उपेक्षा नही कर सकता है। धर्म और समाज का . गाढ सम्बन्ध होता है । धर्म के द्वारा समाज की सुव्यवस्था होती हैं और समाज के द्वारा धर्म का विकसित और विराट स्वरूप व्यक्त होता है। इस प्रकरण में हमें यह विचारना है कि जैनधर्म का सामाजिक दृष्टिबिन्दु क्या । है। समाज-सम्बन्धी प्रश्नों का वह क्या समाधान करता है तथा वह किस : प्रकार की समाज-व्यवस्था का निर्देशक है। . .::..:. . . . . ...
. . जैनधर्म का समाज-विपेयक दृष्टिकोण भी साम्य पर प्रतिष्ठित हैं। उसके सामाजिक विधान में किसी जाति-विशेष का, वर्ग-विशेष का, या लिङ्ग विशेष का कोई महत्व नहीं है। वह ऐसी ससाज-रचना का हिमायती है। जिसमें जाति के कारण या लिंग के कारण कोई विशेष प्रभुत्व या आधिपत्य ' का अधिकारी न हो। उसके द्वारा निर्दिष्ट समाज-व्यवस्था में व्यक्ति मात्र को समानाधिकार है। कोई व्यक्ति जन्म से ही किन्हीं विशेष सामाजिक या धार्मिक अधिकारों का अधिकारी नहीं हो सकता । प्रत्येक व्यक्ति अपने गुणों के अनुसार अपनी योग्यता के बलपर समाज में या धर्म के क्षेत्र में ऊँचे से ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकता है। जैनधर्म ऐसी समाज-रचना का निर्देशक है जिसमें न कोई शोष. हो और न कोई शोषित, न कोई अत्यधिक सम्पत्ति का : उपभोक्ता हो और न कोई दीन-हीन या प्रताडित ही; अपरिग्रह व्रत का उपदेश : देकर वह अत्यधिक संग्रह को सामाजिक और धार्मिक अपराध मानता है। ... इस तरह जैनधर्म आर्थिक समानता, धार्मिक समानता, जाति-पाँति की दीवार ..
kockekokokekake ke: (२८६) kakkakeketekeko