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★ जैन गौरव-स्मृतियां
अनुचित है। यह धर्म, प्रवृत्ति और निवृत्ति को सामान रूप से महत्व देता है । 'आत्मकल्याण और जनकल्याण — दोनों ही इसके कार्यक्षेत्र हैं ।
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स्याद्वाद के सिद्धान्त पर भी लोग कई अनुचित आक्षेप करते हैं । कोई इसे विरोधीवाद, अनिश्चितवाद या संशयवाद कहते हैं तो कोई इसे केवल उपहास की वस्तु समझते हैं । परन्तु यह सब निरी अज्ञानता है । जिन्होंने इस महासिद्धान्त का गहराई से अध्ययन किया है वे जानते हैं कि जैनाचार्यों के दिमाग की यह मौलिक सूझ कितनी महत्वपूर्ण है । दार्शनिक और व्यावहारिक जगत् में इस सिद्धान्त की महती उपयोगिता है । वस्तुतत्व का यथार्थ निरुपण इसी महातत्व के आधार पर हो सकता है । अन्यथा वह निरूपण एकाङ्गी और अपूर्ण ही रह जाता हैं । इस तत्व के ... सम्बन्ध में “स्याद्वाद" प्रकरण मे पहले प्रकाश डाल दिया गया है अतः पाठकगण वहाँ देखकर इसकी लाक्षणिकता को समझें ।
इस प्रकार इस छोटे से प्रकरण में उन खास२ आक्षेपों का वर्णन किया गया है जो आमतौर से जैनधर्म पर हुआ करते हैं। इन आक्षेपों में से प्रत्येक का सविस्तृत निराकरण तत्तद्विषयक प्रकरण में किया जा चुका है इसीलिए यहाँ विस्तार में न जाकर संक्षेप में दिक् सूचन मात्र किया गया पाठक गरण विस्तार से जानना चाहें तो उन प्रकरणों को पढ़ने की प्रार्थना हैं। संक्षेप में यही पर्याप्त हैं कि जैनधर्म पर होने वाले उक्त सभी आक्षेप निराधार हैं । जिज्ञासु जन जैनधर्म के सिद्धान्तों को सही रूप में समझने का प्रयास करें, यही कामना
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जैन धर्म और समाज
एक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि धर्म, आत्मा से सम्बन्धित वस्तु है, उसका सांसारिक व्यवहारों और व्यवस्थाओं से कोई सन्बन्ध नहीं हो सकता । परन्तु साथ ही साथ "न धर्मो धार्मिकैर्विना" की अनुभवपूर्ण उक्ति• की ओर भी दुर्लक्ष्य नहीं किया जा सकता है। इनमें से पहलीदृष्टि निश्चयंनय की अपेक्षा से है और दूसरीदृष्टि व्यवहारनय की अपेक्षा से है । वस्तुतः
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