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इ★ जैन- गौरव-स्मृतियां
है कि पदार्थ जिस अपेक्षा से नित्य है, सत् है, भिन्न है, उसी अपेक्षा से नित्य भी है, सत् भी है और भिन्न भी है। जैनाचार्यों ने इस भ्रम को बड़े ही म्पष्ट शब्दों में दूर करने का प्रयत्न किया है। जैनदर्शन अगर एक ही अपेक्षा से नित्य-नित्य, सत्-असत्, भिन्न-भिन्न आदि कहता तो जरूर विरोध दोष आता, लेकिन वह भिन्न-भिन्न अपेक्षा से भिन्न २ धर्मों की सत्ता स्वीकार करता है इसमें विरोध की कोई गंध नहीं हो सकती !
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जिस प्रकार एक ही व्यक्ति में पुत्रत्व और पितृत्व धर्म संसार स्वीकार करता है लेकिन वह एक ही अपेक्षा से नहीं किन्तु भिन्न २ अपेक्षाओं से । वह. व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है और अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है । इस प्रकार उसमें पितृत्व और पुत्रत्व दोनों धर्म विरोध रूप से पाये जाते हैं । इसमें विरोध का अवकाश ही कहाँ है ? विरोध तो तब होता जब उसे उसके पिता की अपेक्षा से भी पिता और पुत्र की अपेक्षा से भी पिता कहा जाता । अथवा उसके पुत्र की अपेक्षा से भी पुत्र कहा जाता । एक ही व्यक्ति की अपेक्षा पिता और पुत्र कहा जाता तो अवश्य विरोध होता । लेकिन विभिन्न अपेक्षा से जब विभिन्न धर्मों का कथन किया जाता है तब कोई विरोध नहीं होता है ।
: अपेक्षा भेद से विरोधी धर्मों को एकत्र स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं आता है । जैसे "जिनचन्द्र छोटा भी है और बड़ा भी है" इस स्थल पर ज्ञानचन्द्र की अपेक्षा जिनचन्द्र में छोटापन और शान्तिचन्द्र की अपेक्षा बड़ापन देखा जाता है । एक ही जिनचन्द्र व्यक्तित्व में छोटापन और बड़ापन - ये दो विरोधी धर्म जैसे अपेक्षा भेद से विद्यमान हैं इसी तरह अपेक्षा भेद से नित्यानित्यत्व, सत्त्व असत्त्व, एकत्व अनेकत्व, सामान्य विशेष आदि विरोधी धर्म भी अविरोध रूप से एकत्र रह सकते हैं। इसमें विरोध की कोई आशंका नहीं रहती ।
जैनदर्शन जिस रूप से वस्तु में सत्र मानता है उसी रूप में उसमें सत्व नहीं मानता है; वह स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा वस्तु में सत्व मानता है और परद्रव्य-क्षेत्र - काल और भाव से असत्व मानता है इसलिये अपेक्षा भेद से सत्व-असत्व दोनों ही वस्तुओं में अविरोध रूप से रहते हैं। इसी तरह द्रव्यापेक्षा से नित्यत्व और पर्यायापेक्षा से अनित्यत्व भी. अविरुद्धतया रह सकता है।
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