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e★ जैन-गौरव-स्मृतियां
खण्डन किया है वह जैनदर्शन को भी मान्य नहीं है। जैनदर्शन स्याद्वाद का जो स्वरूप मानता है उसे यदि वेदान्त के आचार्य सही रूप में समझने का प्रयत्न करते तो उन्हें उनके विरुद्ध लिखने का प्रसंग ही नहीं आता । शंकराचार्य ने स्याद्वाद के विरुद्ध शाकरभाष्य में यह लिखा है-. . .
"नो कस्मिन्धर्मिणि युगपत् सदसत्वादि विरुद्धधर्मसमावेशः सम्भवति शीतोष्णवत्" ।
... शीत और उष्ण की भांति एक धर्मी में परस्पर विरोधी सत्व और 'असत्व आदि धर्मों का एक काल में समावेश नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि जैसे शीत और उष्ण ये दोनों विरुद्ध धर्म एक काल में एक जगह पर नहीं रह सकते उसी तरह सत्व और असत्व का भी एक काल में एक स्थान पर रहना नहीं बन सकता; इसलिये जैनों का सिद्धान्त ठीक नहीं है।
...: शंकराचार्य ने जो शंका की है वही प्रायः सब स्याद्वाद के विरोधियों की मुख्य शंका और आक्षेप है । उनका कहना है कि जो नित्य है वह अनित्यं कैसे ? और जो अनित्य है वह नित्य कैसे ? जो सत् है वह असत् नहीं हो सकता । जो एक है वह अनेक नहीं हो सकता । जो सामान्य रूप है वह विशेष रूप नहीं हो सकता । जो भिन्न है उसे अभिन्न कैसे कहा जा सकता है ? ये परस्पर विरोधीधर्म एक साथ कैसे रह सकते हैं ? यह है स्याद्वाद पर किया जाने वाला मुख्य आक्षेप । . . .
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.: . इस प्रकार के आक्षेप करने वालों ने जैनधर्म के स्याहाद के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचाना । वे स्याद्वाद का यही स्वरुप समझते रहे कि परम्पर विरोधी. धर्मों को एक स्थान पर स्वीकार करने का नाम स्याद्वाद है।
परन्तु "क्यों और कैसे" ? इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया । स्याद्वाद का . अर्थ "परस्पर विरुद्ध धर्मों का एक स्थान पर विधान करना" नहीं है. परन्तु
अनन्त धर्मात्मक वस्तु में अपेक्षा-भेद से जो जो भेद रहे हुए हैं उनको उसी अपेक्षा से वस्तु में स्वीकार करने की पद्धति का, जैनदर्शन अनेकान्तवाद या. स्याद्वाद के नाम से उल्लेख करता है । जैनदर्शन का स्याद्वाद यह नहीं कहता.