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>> जैन- गौरव स्मृतियां ><
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पदार्थ में रहे हुए एक धर्म को लेकर अधिक से अधिक सात प्रकार से निरूपण किया जा सकता है । यह सात प्रकार का विधिनिषेधमूलक प्रयोग सप्तभंगी कहलाता है । वस्तु के अस्तित्व धर्म को लेकर निम्न प्रकार से सात तरह के विधिनिषेधमूलक वाक्य प्रयोग हो सकते हैं.
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सप्तसंगी
काल
( १ ) स्याद अस्ति एव :- प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, और भाव की अपेक्षा से सत् है । वस्तुओं में भिन्न २ गुण स्वभाव - होते हैं । इन भिन्न स्वभावों के कारण ही वस्तु भिन्न २ हैं । यदि ऐसा न माना जाय और एक वस्तु का धर्म दूसरे वस्तु में भी माना जाय तो पदार्थों में एकता आ जाएगी। यदि घट का स्वभाव पट में भी माना जाय तो घट और घट की भिन्नता नहीं रह सकती है । अतः घट का स्वभाव घट में और पट का स्वभाव
में रहता है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप की अपेक्षा से ही सत् है । अतः प्रथम वचन-प्रयोग "वस्तु कथञ्चिद् सत् ही है" यह बताया गया है ।
( २ ) स्याद् नास्त्येव - वस्तु कथञ्चित् असत् रूप ही है। अर्थात परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से वस्तु अभाव रूप ही है । यदि ऐसा न माना जाय तो एक ही वस्तु सर्वरूप हो जाएगी। यदि घट जिस प्रकार घटत्व रूप से है उसी तरह पट रूप से भी है ही तो घट और पट में कोई अन्तर नहीं रह जाता है । यह इष्ट नहीं है । अतः घट पट रूप से नहीं हीं है घट स्व- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से है और परद्रव्य क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से नहीं है । स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से है यह प्रथम भंग में बताया । इस द्वितीय भंग में यह बताया गया है कि वस्तु परद्रव्यादि की अपेक्षा असत् रूप है । .
( ३ ) स्यादस्ति नास्ति - जब वस्तु में रहे हुए स्व- द्रव्यादिक की अपेक्षा से सत्व और परद्रव्यादिक की अपेक्षा से असत्व को क्रमशः प्रकट करने की विविक्षा है तब यह तृतीय भंग वनता है अर्थात पदार्थ कथञ्चित् है और नहीं भी ।
( ४ ) स्याद् वक्तव्य - पदार्थ में रहे हुए स्वद्व्यादिक की अपेक्षा से सत्त्व को और परद्रव्यादिक की अपेक्षा से असत्त्व को एक साथ कहने
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