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* जैन-गौरव-स्मृतियां
नहीं मानता है । वह सापेक्षरूप से वस्तु में नित्यता और अनित्यता रूप । दोनों धर्मों को स्वीकार करता है । वस्तु के अविनाशीस्वरूप द्रव्य की अपेक्षा वस्तु नित्य है और विनाशीस्वरूप पर्याय की अपेक्षा बस्तु अनित्य . है । अतएव वस्तु नित्यानित्य-उभयरूप है। . : .
वस्तु के इस अनेकान्त स्वरूप को न मान कर यदि केवल एकान्त नित्यवाद या. अनित्यवाद स्वीकार किया जाय तो वस्तु का स्वरूप ही नहीं बनता है । पदार्थ का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व है। यह लक्ष्ण वस्तु को अनेकान्तात्मक मानने पर ही घटित हो सकता है । एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पदार्थ में अर्थक्रिया नहीं हो सकती । कूटस्थ नित्य पदार्थ में . अर्थक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि क्रिया होने में परिणति की आवश्यकता होती है । जहाँ परिणति है वहाँ कूटस्थ नित्यता नहीं रह सकती है। सर्वथा अनित्य पक्ष में भी अर्थक्रिया घटित नहीं, क्योंकि पदार्थ प्रथम क्षण में तो अपनी उत्पत्तिमान है और दूसरे क्षण में सर्वथा नष्ट हो जाता है तो अर्थक्रिया कैसे बन सकती है ? अतः अनेकान्त पक्ष में ही अर्थक्रिया और अर्थ व्यवस्था घटित होती है।
. ......... हमारा प्रत्यक्ष अनुभव भी पदार्थों की नित्यानित्यता को बतला रहा है। स्वर्णद्रव्य की कंटकत-कुण्डल आदि और मतिका द्रव्य की घंट, कुण्डिका
आदि विभिन्न पर्याय दृष्टिगोचर होती हैं.। हम देखते हैं कि सोने का कड़ा कालान्तर में मुकुट वन जाता है और मुकुट टूटकर हार बन जाता है । इस तरह स्वर्णद्रव्य के आकार में उत्पाद-विनाश होता रहता है लेकिन स्वणे द्रव्य का ध्वंस नहीं होता । इसी तरह मिट्टी का घट बन जाता है, घट फूटकर कपाल (ठीकरी) वनं जाता है लेकिन मिट्टी कायम रहती है । उसके मूलरूप का कभी ध्वंस नहीं होता । पर्यायों की परिणति होती है, यह बात स्पष्ट है हि अतएव पदार्थ को पर्याय की अपेक्षा से अनित्य मानना चाहिए द्रव्य का अपेक्षा से पदार्थ नित्य है क्योंकि विभिन्न पर्यायों में द्रव्य का अनुगत रूप से प्रत्यक्ष भान हो रहा है अतएव वस्तु द्रव्यापेक्षा से नित्य और पर्यायापेक्षा से अनित्य है । पदार्थ का नित्यानित्य रूप ही वास्तविक है। ....
इसी तरह सामान्य-विशेप, सत्-असत्, वाच्य-अवाच्य, भेद-अभेद की विचारण में भी पदार्थ उभयरूप ही है।