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* जैन-गौरव-स्मृत्तियों *
इनकी पौद्गलिकता सिद्ध करता है । प्रकाश के सम्बन्ध में जैन विज्ञान की मान्यता विज्ञान से मिलती जुलती है। शब्द, अलोक, और ताप को पौद्गलिक मानकर जैन तत्वज्ञों ने अपनी वैज्ञानिकता का प्रमाण उपस्थित किया है। - पदार्थ की उत्पत्ति के विषय में जैन सिद्धान्त का परमाणुवाद श्राज के विज्ञान के विकास का आधार है । वैशेषिक दर्शन भी परमाणुवाद की ही मानता है । यूनानी दार्शनिकों ने भी इसे स्वीकार किया है । डाल्टन का अणु सिद्धान्त इसका ही स्पष्ट विवेचन है। अर्थात् पदार्थों का मूल, अणु है यह
आज के विज्ञान का निर्णय है । विज्ञान के अनुसार भी पदार्थ, स्कन्धों से, स्कन्ध अणुओं से, और अणु परमाणुओं से बना है । जैन विज्ञान भी स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु के रूप में पदार्थ को चार विभागों में विभाजित करता है।
इस तरह जैन-विज्ञान के पुद्गल सम्बन्धी विवेचन को आधुनिक विज्ञान का पूर्वरूप कहा जा सकता है । जैन तत्वज्ञों ने सिद्धान्त के रूप में ही वह निरूपण किया है जबकि आधुनिक विज्ञान ने उसे प्रक्रियात्मक रूप दिया है। जैन विज्ञान के For Mul (गुरू) की प्रक्रिया ही आज का विज्ञान है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन जैन-विज्ञान का संशोधित और क्रमपरिवर्द्धित संस्करण ही, आज का विज्ञान है।
पदार्थों में परिवर्तन होने का कारण काल है । यह नवीन को पुराना करता है, पुराने को नया रूप देता है । पदार्थ-परिवर्तन में काल, मूलकर्ता
नहीं होता किन्तु केवल सहायक होता है। जैसे कुम्भकार काल द्रव्य दण्ड के द्वारा चाक को गतिमान करता है। इसमें वह दण्ड
चक्र को स्वयं गतिमान नहीं करता किन्तु गति में सहायता करता है इसी तरह काल भी पदार्थ के परिवर्तन का सहायक कारण है। वर्त्तना ( वस्तु के अस्तित्व का कायम रहना ), परिणमन, परिवर्तन, परिवर्धन, क्रिया, ज्येष्ठत्व-कनिष्ठत्व आदि का व्यवहार काल के कारण ही है । तत्त्वज्ञान
की गम्भीर विचारणा के अनुसार काल अनादि-अनन्त, अखण्ड-अच्छेद्य » प्रवाह है तदपि व्यवहार के लिए इसमें अनन्त समय माने हैं। विवक्षित एक समय ही वर्तमान काल का है शेष अतीत और अनागत काल के हैं।
दूसरे द्रव्यों की तरह काल के संख्यात, असंख्यात या अनन्त प्रदेश