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जैन-गौरव स्मृतियां
दुकारीदारी हो गई है जहां ग्राहक को माल परखने का भी नैतिक अधिकार नहीं है । राज्याश्रय होने से ब्राह्मण वर्ग ने अपनी प्रतिष्ठा की सुरक्षा के लिये विविधविधान कर लिये जैसे कि वेद स्वयं प्रमाण है, ये नित्य है, इन्हें पढ़ने का अधिकार ब्राह्मणों को ही है ( स्त्री शूद्रौ नाधीयेताम् ) इत्यादि ।
उत्तरोत्तर वैदिक कर्म काण्डों और पुरोहितों को पोषणा मिलता गया । परन्तु उसका अर्थ यह नहीं है कि समस्त मस्तिष्क इन्हीं में कुंठित हो गया । इस दुकानदारी के साथ-साथ स्वतन्त्र और स्वस्थ विचारों का प्रवाह भी स्थान प्राप्त करता गया। उपनिषद् और विविध दार्शनिक परम्पराएँ उसी उपजाऊ मस्तिष्क की देन हैं। उपनिषद् काल में कर्मकाण्डों का जोर कुछ कम हुआ
और अध्यात्म की ओर झुकाव अधिक हो गया। सर राधाकृष्णन के शब्दों में उपनिषद् एक ओर वैदिक उपासना का विकसित रूप है और दूसरी ओर ब्राह्मण-युग की प्रतिक्रिया ।
ब्राह्मण-संस्कृति ने यज्ञ और ईश्वर के सर्वनियन्तृत्व को स्वीकार किया इससे माना जाने लगा कि भगवान् की जो इच्छा होगी, वही होगा। मनुष्य स्वयं कुछ नहीं कर सकता । इस भावना ने निर्बलता और अकर्मण्यता को जन्म दिया । व्यक्ति की पुरुषार्थ-भावना को धक्का लगा। इसके विरुद्ध श्रमण-संस्कृति यह विधान करती है कि मनुष्य या व्यक्ति स्वयं अपना विकास कर सकता है । वह अपने पुरुषार्थ से परम और चरम-विकास परमात्म-पद को प्राप्त कर सकता है। ब्राह्मण परम्परा में व्यक्ति अपने उद्धार के लिये सदा परमुखापेक्षी रहा है। देवी-देवता, ईश्वर, ग्रह, नक्षत्र आदि सैंकड़ों ऐसे तत्व हैं जो व्यक्ति के भाग्य पर नियन्त्रण करनेवाला, स्वाश्रयी और अनन्त शक्ति सम्पन्न है । यह सब से प्रधान और मौलिक भेद है जो ब्राह्मण और श्रमणसंस्कृति में पाया जाता है।
ब्राह्मण-संस्कृति में वर्ग-विशेप को महत्व प्राप्त है । ब्राह्मण चाहे जितना ही नैतिक दृष्टि से पतित क्यों न हो तो भी वह पूजनीय माना गया है। . ... ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए दूसरे वर्ग को अत्यन्त हीन और
घृणास्पद समझा गया है। शूद्रों और स्त्रियों के प्रति उसमें घृणा के दर्शन . होते हैं। इसके विरुद्ध श्रमण संस्कृति किसी वर्ग के माहात्म्य को स्वीकार र नहीं करती। वह स्पष्ट घोषित करती है कि वर्ग या व्यक्ति का कोई महत्व नहीं