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* जैन-गौरव-स्मृतियां
वाली संस्कृति श्रमण संस्कृति कही जाती है। 'समन' शब्द का अर्थ है समानभाव रखने वाला । जो संस्कृति सब प्राणियों को अत्मवत् समझने की शिक्षा देती है, जो सव अत्माओं को समान अधिकार देती है, जिसमें वर्गगत या जातपांति गत भेद के लिये कोई अवकाश नही है, वह समन संस्कृति है । 'शमन' का अर्थ है अपनी वृतियों को शान्त रखना। इस तरह व्यक्ति तथा समाज का कल्याण श्रम, सम और शम रूप तीन तत्वों पर अवलम्बित है। इन तीनों को सूचिति करनेवाली संस्कृति श्रमण संस्कृति के नाम से पहचानी जाता है ।
ब्रह्मण संस्कृति का आधार 'ब्रह्म' है । इसका अर्थ है यज्ञ, पूजा, स्तुति और ईश्वर । ब्राह्मण संस्कृति इन्हीं तत्त्वों के चारों और घूमती है। वेद काल के प्रारम्भ में हमें प्रकुति पूजा दृष्टिगोचर होती है। अग्नि, वाय, जल, सूर्य आदि की स्तुति विविध मंत्रों के द्वारा की जाती है। इस भक्ति का अधिकार सबको प्राप्त था। उस समय किसी वर्ग विशेषा का अधिपत्य न था। वर्ण-व्यवस्था को स्थान नहीं था। स्त्री-पुरुष में किसी प्रकार का भेद न था उस समय केवल भक्ती थी। इसके बाद वातावण परिवर्तित हो जाता है। ब्राह्मण वर्ग अपना प्रभुत्व स्थापित करता हुआ दृष्टिगोचर होता है । धर्म की आत्मा लुप्त होजाती है और ब्राह्म क्रिया काण्डों को महत्व मिल जाता है । सामूहिक यज्ञ की वृद्धी हो जाती है और पुरोहित समाज का नेता बन जाता है । यज्ञों का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है और वह जीवन का अनिवार्य अंग हो जाता है। यज्ञ करने का उद्देश्य सांसरिक वासनाओं को पूर्ण करना हो जाता है । धन, पुत्र, राज्यविस्तार, शत्रुनाश या और किसी भैतिक स्वार्थ की पूर्ति करना है तो यज्ञ का आश्रय लिया जाता है। यज्ञ के लिए किया जाने वाला पाप भी पाप नहीं रहता है। जो व्यक्ति जितने अधिक यज्ञ करता है वह उतना ही अधिक धर्मात्मा समझा जाता है। नैतिकता, आदर्श और मानवता लुप्त हो जाती . - है और यज्ञ एवं की याज्ञियों का एकाधिपत्य स्थापति हो जाता है । इसके विषय में सर राधाकृष्णन ने कहा है कि-तत्कालीन यज्ञ संस्था ऐसी दुकानदारी है जिसकी आत्मा मर गई है और जिसमें यजमान एवं पुरीहित में सौदे होते है। यदि यजमान अधिक दक्षिणा देकर बड़ा यज्ञ करता है तो उसे बड़े फल की प्राप्ति होती है और थोड़ी दक्षिणा देने से छोटे फल की। यह ऐसी