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★ जैन- गौरव -स्मृतियां
उसमें सहायता करना धर्मद्रव्य का कार्य है । इसीलिए यह द्रव्य निष्क्रिय नां गया है द्रव्य संग्रह में कहा गया है कि "जिस प्रकार गतिमान मत्स्य की
में जल सहायक है इसी तरह धर्म गतिशील जीव और पुद्गल द्रव्य की ति में सहायक है यह गतिहीन पदार्थ को चलाता नहीं हैं ।" इसका अर्थ इतना ही है कि धर्मास्तिकाय किसी स्थिति प्राप्त जीव या पुद्गल को स्वयं चलित नहीं करता है परन्तु धर्मास्तिकाय के बिना उसी तरह जीव या पुद्गल की गति संभवित नहीं है जैसे जल के बिना मछलियों का तैरना । सरोवर का जल मछलियों को तैरने की प्रेरणा देने वाला नहीं है परन्तु तैरने वाली मछलियों के लिए सहायक हैं इसी तरह धर्मद्रव्य गति प्रेरक नहीं है परन्तु गतिमान पदार्थों की गति में सहायक है ।
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इस गति सहायक धर्मतत्त्व को जैनदर्शन के अतिरिक्त और किसी दर्शनकार ने द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया है । परन्तु इतने मात्र से इसकी वास्तविकता नही मानी जा सकती है। जैनाचार्यों से इस द्रव्य की वास्तविकता प्रमाणित की है । जिस प्रकार सरोवर के अनेक मत्स्यों की युगपद् गति को देखकर उस गति के साधारण निमित्तरूप सरोवर के जल का अस्तित्व प्रतीत होता है इसी तरह जीव और पुद्गलों की युगपद् गति का भी कोई साधारण बाह्यनिमित्त होना चाहिए, यह सहज ही प्रतीत होता है : क्योंकि इसके बिना गति रूप कार्य संभवित नहीं है । धर्मद्रव्य ही वह सर्व सामान्य वाह्य निमित्त है ।
धर्मद्रव्य प्रत्यक्ष का विषय नहीं है अतः वह असत् है यह नहीं कहा जा सकता है । अनेक ऐसे पदार्थों की सत्ता माननी पड़ती है जो प्रत्यक्ष के विषय न हों। पदार्थ जब गतिशील और स्थितिशील दिखाई देते हैं तो जरूर कोई ऐसा द्रव्य होना चाहिए जो इनकी गति और स्थिति में सहायता करे । इस अनुमान से युक्ति से धर्मास्तिकाय के अस्तित्त्व और द्रव्यत्त्व की सिद्धि होती है।
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यदि कोई यह शंका करे कि आकाश ही गति और स्थिति का कारण है अतः धर्मद्रव्य को अलग मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, यह प्रयुक्त है क्योंकि आकाश का कार्य तो अवगाह देना- स्थान देना