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जैन-गौरव-स्मृतियां
चार, पांच इन्द्रिय वाले जीव-अपने कार्य का अनुभव करते हैं। उच्च प्रकार के मनुष्य आदि जीव ज्ञान के अधिकारी होते हैं। सूक्ष्म निगोद के जीवों से लेकर मनुष्य तक के चैतन्य का क्रमिक विकास जैनधर्म में सुन्दर ढंग से प्ररुपित है।
___पश्चात्य देशों में और भारत में भी जो लोग यह मानते थे कि मनुष्यों . के अतिरिक्त और सब अचेतन यंत्र के समान हैं जैनधर्म ने हजारों वर्ष पहले इस बात का खण्डन किया था । आज के मानस शास्त्रियों ने दो सूत्र , किये हैं (१) मनुष्य से भिन्न निम्न कोटि के प्राणियों में निम्न स्तर का चैतन्य पाया जाता है (२) जीवन और चैतन्य सहभावी हैं। ये दोनों सूत्र . . जैनधर्म के जीव विचार में प्रारम्भ से ही विद्यमान हैं। . .
___ उक्त विवेचन से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि जैनदर्शन सम्मत जीव- . वाद सर्वथा सत्य और वैज्ञानिक है। आज के विज्ञान ने जड़पदार्थ सम्बन्धी अन्वेषण विशेष रूप से किये हैं अतः जैन जड़-विज्ञान का थोड़ा सा विचार यहाँ किया जाना प्रासंगिक ही है।
— 'धर्म' शब्द का अर्थ प्रायः शुभ प्रवृत्ति से लिया जाता है परन्तु यहाँ यह अर्थ विवक्षित नहीं है। जद्रव्य में जिस धर्म तत्त्व की गणना है वह
____एक नवीन ही अर्थ का घोतक है। जीव और पुद्गल द्रव्य जड़ द्रव्य की गति में जो सहायक होता है वह धर्मद्रव्य है। इस अर्थ धर्मास्तिकाय में 'धर्म' शब्द का प्रयोग जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्यत्र
- कहीं नहीं हुआ है । जैनदर्शन ने गति सहायक तत्त्व को धर्मास्तिकाय कहा है और उसे एक स्वतंत्र द्रव्य माना है । यह धर्म द्रव्य . अमूर्त है, लोकाकाशव्यापी है, नित्य है और असंख्येय प्रदेशी हैं । प्रदेशों का
समूह होने से यह 'अस्तिकाय' कहा जाता है अलोक में इसका अस्तित्व नहीं है।
जिस प्रकार जल मछलियों को तैरने में सहायता देता है इसी तरह धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों को गति करने में सहायक होता है। धर्मद्रव्य . गति.का उदासीन कारण है; यह गति का प्रेरक नहीं है। किसी भी स्थितिशील
पदार्थ को चलाने की शक्ति धर्मद्रव्य में नहीं है परन्तु जो वस्तु गतिशील ।