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________________ Here जैन गौरव-स्मृतियाँ र वह उस सत्य स्वरूप को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता रहता है। ...? तीसरी अवस्था में आत्मा का वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाता है । पहला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्मदशा का चित्रण हैं । चौथे से बारहवें तक अन्तरात्मभाव का वर्णन है और तेरहवाँ चौदहवाँ गुणस्थान परमात्मभाव का प्रतिपादक है। . . ... . इर आध्यात्मिक विकास क्रम के द्वारा पाठक जन भी आत्म विकास : की प्रेरणा प्राप्त करें । इतिशम् । (चतुर्थ कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना के आधार पर) ___-जैन धर्म का वैज्ञानिक द्रव्य-निरूपण - .. .: जैनदर्शन जगत् के दार्शनिक और वैज्ञानिक तत्त्वों का समृद्ध : भण्डार है, इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं। इसका तत्त्वज्ञान और द्रव्य निरूपण नितान्त वैज्ञानिक और बुद्धिसंगत है। युगातीत प्राचीन काल में जैन विचारकों में विश्व के दृष्ट और अदृष्ट पदार्थों के सम्बन्ध में जो निर्णय दिया है वह आज के वैज्ञानिक साधनों से समृद्ध युग की वैज्ञानिक कसौटी पर कसे जाने पर भी सत्य प्रमाणित होता है। . . जैनधर्म के अनुसार इस विश्व में दो मूल अविनाशी और नित्य तत्व हैं। उनमें एक जीव है और दूसरा अजीव । अजीव तत्व के अन्तर्गत धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल-इन पाँच द्रव्यों का अन्तर्भाव होता है। एक जीव द्रव्य और पाँच अजीव द्रव्य-याँ ६ द्रव्य कहे जाते हैं जिनकी. पारिभाषिक संज्ञा 'पद्रव्य' है। .. द्रव्य की परिभाषा करते हुए तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है . "गुणपर्याय वद्रव्यम्" अर्थात जो गुण और पयोय से युक्त होता है वह द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य में परिणाम पैदा करने की शक्ति है। द्रव्य की परिभाषा अर्थात् प्रत्येक द्रव्य परिणामी स्वभाव वाली है । अतः वह मूल स्वरूप में स्थिर रहता हुआ भी विविध रूपों में -: परिणत होता रहता है । जिस प्रकार स्वर्ण, अपने स्वर्णत्व को कायम रखता MATIKKITKICHITRAKAKAKAR:(२३२)SAKAKIRXXXKAJAMANE
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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