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★ जैन-गौरव-स्मृतियां *
यारहवीं भूमिका में मोह का सर्वथा क्षय होते ही आत्मा के दूसरें आवरण ( घाति कर्म ) भी उसी प्रकार तितर-बितर हो जाते हैं जैसे सेनापति के मरते ही दूसरे सैनिक इधर उधर भाग खड़े होते हैं । इस अवस्था में आत्मा की सभी मुख्य शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। आत्मा अपने | सच्चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । यह सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है । जिस प्रकार पूर्णिमा की निरभ्र रात्रि में चन्द्रमा की सम्पूर्ण कलाये प्रकाशमान १ होती हैं वैसे इस स्थिति में आत्मा की सारी शक्तियाँ प्रस्फुटित हो जाती हैं । श्रात्मा को परमात्मभाव प्राप्त हो जाता है | यह तेरहवीं भूमिका है । इसमें विकास गामी आत्मा को पूर्ण आध्यात्मिक स्वराज्य प्राप्त हो जाता है ।
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इस स्थिति में चिरकाल तक रहने के बाद आत्मा दुग्ध रज्जु के समान शेष रहे हुए अघाति कर्मों के आवरण को दूर करने के लिए शुक्ल ध्यान के तृतीय भेद सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देता है । सूक्ष्म क्रिया का भी सर्वथा उच्छेद कर वह सुमेरु की तरह निष्कम्प स्थिति को प्राप्त कर लेता है और देह-मुक्त हो जाता है। यह निर्गुण ब्रह्म स्थिति ही विकास की पराकाष्ठा है । यही सर्वाङ्गीण परिपूर्णता है । यही परम पुरुषार्थ की अन्तिम सिद्धि है । इसे पाकर आत्मा पूर्ण हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है और पूर्णतया स्वरूप लीन हो जाता है । यह विकास की सर्वोच्च भूमिका हैं ।
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आध्यात्मिक विकास क्रम का यह कितना सुन्दर निरूपण हैं ।
उपर्युक्त चौदह भूमिकाओं का भी संक्षेप में वर्गीकरण करते हुए शास्त्रकारों ने केवल तीन अवस्थाएँ वतलाई हैं - ( १ ) बहिरात्मभाव (२) अन्तरात्मभाव और (३) परमात्मभाव | जब तक आत्मा बाह्य पदार्थों में आनन्द मानता है, जब तक उसे आत्मा के वास्तविक स्वरूप की प्रतीति नहीं होती, जब तक उसकी दृष्टि बाह्य पुद्गलों की ओर रहती हैं तब तक बहिरात्मभाव अवस्था है । इस अवस्था में श्रात्मा का शुद्ध स्वरूप अत्यन्त श्रच्छन्न रहता है ।
दूसरी अन्तरात्मभाव अवस्था में आत्मस्वरूप की श्रमिव्यति तो नहीं होती किन्तु आत्मा को अपने स्वरूप का भान हो जाता है और XXXXOXNXXNXNXXXXX: (२३१):XXXX