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जन-गौरव-स्मृतियां
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आत्मा विकासोन्मुख होता है । अतः आत्मा के विकास और अविकास का आधार मोह की उत्कटता या निर्बलता है। मोह की प्रबलता और निर्बलता के तारतम्य पर ही यह आत्मा का विकास क्रम अवलम्बित है ।
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आत्मा को स्वरूप च्युत करने वाले मोह की दो प्रकार की शक्तियाँ हैं प्रथम शक्ति आत्मा को ऐसा बेभान बना देती है कि जिसके कारण वह अपनो स्वरूप भूल जाता है, जड़ वस्तुओं को अपना समझ लेता है । इस शक्ति के कारण आत्मा विवेकहीन बन जाता है । दूसरी शक्ति अ को विवेक प्राप्त कर लेने पर भी - तदनुसार प्रवृत्ति करने नहीं देती । प्र शक्ति को 'दर्शन मोह' और दूसरी को "चारित्र मोह" कहते है । जब दर्शन मोह की प्रबलता रहती है तब तक चारित्र मोह कभी निर्बल नह हो सकता । जब दर्शनमोह मन्द होने लगता है तो चारित्र मोह भी क्रमशा मन्द होने लगता है ।
जिस आत्मा को मोह की ये दोनों प्रबल शक्तियाँ दृढ़ रूप से घेरे रहती हैं वह अधः पतित या अविकसित आत्मा प्रथम गुणस्थान का अधि कारी है। मोह की प्रबलता के कारण इस स्थिति में रहे हुए आत्माओं की आध्यात्मिक स्थिति बिल्कुल गिरी हुई होती है । इस स्थिति में रहा हुआ आत्मा भौतिक उत्कर्ष 'चाहे जितना क्यों न कर ले परन्तु आत्मिक दृष्टि से वह बिल्कुल गया बीता रहता है । उसकी प्रवृत्ति विपरीत दशा में होने के कारण वह तात्विक दृष्टि से व्यर्थ सी होती है । जैसे दिग्मूढ व्यक्ति इधर-उधर भटकता रहता है परन्तु वह अपना इष्ट स्थान प्राप्त नहीं कर सकता है, इसी तरह विवेकहीन आत्मा अपने मूलस्वरूप को भूलक पर-पदार्थों में आसक्ति करता है और उन्हें प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है परन्तु वह तात्विक सुख से वञ्चित रहता है। इस प्रकार विवेकहीन आत्मा लक्ष्य-भ्रष्ट होकर विपरीत दिशा में पुरुषार्थ करता है। इस भूमिका को ‘बहिरात्मभाव' या ‘मिथ्यात्व' कहते हैं । इस भूमिका में रहे हुए आत्माओं की स्थिति भी एकसी नहीं होती । किसी पर मोह का गाढतम, किसी पर गाढतर और किसी पर उससे भी कम प्रभात्र होता है
मोह की प्रबलतम शक्ति के द्वारा थिरे हुए आत्मा में शक्ति का न्यूनतम अस्तित्व तो रहता ही है । यदि ऐसा न हो ता आत्मत्व में भी आत्मिक
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