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* जैन-गौरव-स्मृतियां ★
..जैनदर्शन के अनुसार आत्मा स्फटिक के समान निर्मल, सकल . पदार्थों का ज्ञाता और परिपूर्ण-आनन्दमय है । मोह अज्ञान के कारण वह '
राग-द्वेषः रूप विभाव परिणति करता है। जिसके कारण वह कर्म-बन्धनों से बँधजाता है। फलस्वरूप उसकी चेतना और अनन्त शक्ति पर घना आवरण आजाता है । यह आवरण जितना धना होता है उतनी ही आत्मिक शक्तियाँ मन्द हो जाती हैं और यह आवरण जितना हल्का होता है उतनी ही आत्मिक शक्तियाँ प्रकट और तीन रहती हैं । कर्मों का आवरण जितने २ अंश में हटता जाता है उतने २ अंश में आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता जाता है और यह आवरण जैसे २ बढता है वैसा २ आत्मा का शुद्ध स्वरूप तिरोहित होता जाता है। मोह जनित कर्मों के आवरण की तीव्रता. या
मन्दता के कारण आत्मा को विभिन्न अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता । है । जब आवरणों की तीव्रतम अवस्था होती है तब आत्मा निम्नतम अवस्था 1. में रहता है और जब आवरण सर्वथा क्षीण हो जाते हैं तब आत्मा अपने
शुद्ध चिदानन्द स्वरूप में आ जाता है; यह उच्चतम अवस्था है । इन दोनों
परकाष्ठाओं के बीच की संख्यातीत अवस्थाएँ, हैं। सब का संक्षेप में वर्गीकरण ... करके जैनदर्शन ने चवदह सोपान बनाये हैं जिन पर चढ़कर आत्मा अपनी - सर्वोच्च स्थिति पर पहुंच जाता है । आध्यामिक विकास के ये चवदह सोपान 'गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं। जो जिस सोपान-पर स्थित है उसके लिए:
ऊपर का सोपान उच्च है और नीचेका सोपान नीच है। इस तरह ये चवदह सोपान आत्मा के उत्तरोत्तर विकास के घोतक हैं । गुणस्थान की परिभाषा भी यही की गई है। गुणों-आत्मिक शक्तियों के विकास की क्रमिक अवस्था. कहते हैं गुणस्थान के.चवदह भेद निम्न प्रकार से किये गये हैं:
(१) मिथ्यात्व गुणस्थान (२) सास्वादन गुणस्थान (३) मिनगुणस्थान (४) अविरत समदृष्टि गुणस्थान (५) देशविरति गुणस्थान (६) प्रमत्त संयत गुणस्थान (७) अप्रमत्त संयतं- गुणस्थान (5) निवृत्ति बादर गुणस्थान (६) अनिवृत्ति बादर गुणस्थान (१०) सूक्ष्म सम्पराय गुण. (११) उपशान्तमोह गुणस्थान (१२.) क्षीणमोह गुणस्थान (१३), सयोगि केवली गुणस्थान और १४ अयोगि केवली गुणस्थान । .
आत्मा. का सर्वोपरी प्रतिद्वन्द्वी मोह है। जब तक मोह की प्रबलता, है तब तक आत्मा विकासगामी नहीं हो सकता । मोह के निर्बल होते ही
NAMAR WAPOR SOARDAMANARMA
AIM 1511
MEWATI
NTRAVEENDR.AMAR