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* जैन-गौरव स्मृतियां
मीमांसकों के इस कथन का जैनाचार्यों ने विस्तृत उत्तर दिया है। वे कहते हैं:आँख में देखने की शक्ति है परन्तु वह अन्धेरे में देख नहीं सकती । जव अन्धकार दूर होता है तब आँख की शक्ति काम करने लगती है । आत्मा का व्यापार भी इसी तरह का है। उसमें जगत् के सब पदार्थों को जाननेदेखनेकी शक्ति है-सर्वज्ञता इसका स्वभाव है परन्तु ज्ञानवरणीय कर्म के आवरण से यह शक्ति अवरुद्ध रहती है। जब तपश्चर्या, ध्यान आदिके द्वारा यह आवरण दूर हो जाता है तब आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव-सर्वज्ञता को प्राप्त कर लेता है। जिस प्रकार दर्पण में नानाविध पदार्थ यथास्थित रूप से प्रतिविम्बित होते हैं उसी तरह विशुद्ध आत्मा के ज्ञान रूपी दर्पण में जगत् के सकल पदार्थ प्रतिविम्बित होते हैं।
आत्मा में पदार्थ मात्र को जानने की शक्ति तो है ही। मीमांसक भी यह मानते हैं कि भूत, भविष्य, वर्तमान, दूर, अनागत आदि सब पदार्थों की प्रतीति होती है। आगम के द्वारा दूर २ के पदार्थों की उपलब्धि होना मीमांसक भी मानते हैं । तात्पर्य यह है कि आत्मामें पदार्थ मात्र को ग्रहण करने की शक्ति है, यह निर्विवाद है। शद्ध स्वभाव वाला आत्मा सब पदार्थों को ग्रहण कर सकता है- जान सकता है।
योगिप्रत्यक्ष से सर्वज्ञता की प्रतीति होती है। अनुमान से भी सर्वज्ञता की सिद्धि होती है । वे अनुमान इस प्रकार हैं-सूक्ष्म और अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञाता अवश्य होना चाहिए क्योंकि वे प्रमेय-ज्ञेय हैं । जो-जो प्रमेय होता है उसका प्रमाता-ज्ञाता-अवश्य होता है जैसे घटादि के ज्ञाता हम लोग। दूसरा अनुमान इस प्रकार है:-हमारे ज्ञान में तरतमता हैं तो इस ज्ञान का प्रकर्ष कहीं अवश्य होना चाहिए क्योंकि जहाँ तरतमता होती है तो उसका प्रकर्प-पराकाष्ठा भी कहीं अवश्य होती है। जैसे सूक्ष्मता की पराकाष्टा अणु में और महानता की पराकाष्ठा आकाश में पाई जाती है। इसी तरह ज्ञान की पराकाष्टा कहीं पाई जानी चाहिए । वह सर्वज्ञ में पाई जानी चाहिए। हमारी अल्पज्ञता ही किसी की सर्वज्ञता की परिचायक है । इत्यादि प्रमाणों से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है।
मीमांसकों के द्वारा प्रमाण रूप माने गये वेदों से भी सर्वज्ञता की