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जैन-गौरव-स्मृतियां★ाट
. ही ईश्वर है और वही उपास्य है। मुक्तात्मा के अतिरिक्त और कोई स्वतंत्र ईश्वर-शक्ति है यह जैनदर्शन स्वीकार नहीं करता है।
जैनदर्शन की तरह योग दर्शन भी ईश्वर को कर्ता हर्ता न मानकर केवल उपास्य मानता है परन्तु ईश्वर को जीवात्मा से सर्वथा स्वतंत्र अलग कोटि का-सदा मुक्त मानता है । वह जीवात्मा और परमात्मा में मौलिक भेद मानता है। उसके अनुसार परमात्मा सदा से मुक्त है। वह जीवात्मा की श्रेणी का नहीं है परन्तु सर्वथा स्वतंत्र-भिन्न है। जैनदर्शन का योग सम्मत ईश्वर के सम्बन्ध में यही मतभेद है। जैनदर्शन का मन्तव्य है कि जीवात्मा और परमात्मा में कोई मौलिक भेद नहीं है । जो आत्मा कर्मवन्धन से सर्वथा मुक्त हो गये हैं वे परमात्मा हैं और जो कर्मवन्धन से वन्धे हुए हैं. वे जीवात्मा हैं । जीवात्मा जब कर्मों का समूल उन्मूलन कर देता है तब वही परमात्मा बन जाता है । तात्पर्य यह है कि योग दर्शन मुक्तात्मा और ईश्वर में भेद मानता है जब कि जैनदर्शन मुक्तात्मा को ही ईश्वर मानता है ।
योगदर्शन की ईश्वर विषयक मान्यता से मिलते-जुलते अभिप्राय पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी व्यक्त किये हैं। सेंट ऑगस्टिन कहता है"मनुष्य-बन्धन से बँधा हुआ मनुष्य-अल्पज्ञ और मोहाधीन मानवकभी सम्पूर्ण सत्य की धारण कर सकता है ? कसी नहीं । जगत् की पृष्ठभूमि में सत्य का परिपूर्ण आदर्शरूप-आधार रूप "पूर्णसत्व" है इसीलिए पामर मनुष्य सत्य का साक्षात्कार कर सकता है । यह पूर्णसत्व ही ईश्वर हैं।"
आल्सेल्म नामक दार्शनिक कहता है कि-"पदार्थसमूह में एक क्रम देखा जाता है। व्यक्ति और जातिमें उच उच्चतर-उच्चतम ऐसी तरतमता देखी जाती है, इस पर सेही एक परिपूर्णतम सत्व है यह सिद्ध होता है।" अन्य पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी नाना युक्तियों से यही बात कही है कि मनुष्य अपूर्ण है, पामर है, सीमावद्ध हैं, अज्ञानमें भटकता है इस पर से एक महान महिमा वान ईश्वर है- जो सब प्रकारसे पूर्ण है, महान् है, असीम है और ज्ञानरूप है । योशदर्शन भी इसी 'पूर्णसत्व' वाद का प्रचारक है।
. सांख्य दर्शन के प्राचार्य कपिल ने "ईश्वरासिद्धः" कहकर इस प्रकार के एक अद्वितीय ईश्वर की सत्ताका निषेध किया है। जैनाचार्य भी