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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियां परमाणुं सांख्य सम्मत प्रकृति की तरह परिणामी है, न्याय-वैशेषिक सम्मत परमाणु की तरह कूटस्थ नहीं है । इसीलिए जैसे एक ही सांख्य सम्मत प्रकृति पृथ्वी, जल, तेज, वायु आदि अनेक भौतिक सृष्टियों का उपादान बनती है वैसे ही जैन सम्मत्त एक ही परमाणु पृथ्वी, जल, तेज आदि नाना रूप में परिणत होता है । जैन परम्परा न्याय वैशेपिक की तरह यह नहीं मानती कि पार्थिव, जलीय आदि भौतिक परमाणु मूल से ही सदा भिन्न जातीय है। इसके सिवाय और भी एक अन्तर ध्यान देने योग्य है। वह यह कि जैन सम्मत परमाणु वैशेषिक सम्मत परमाणु की अपेक्षा इतना अधिक सूक्ष्म है कि वह अन्त में सांख्य सम्मत प्रकृति जैसा अव्यक्त बन जाता है। जैन परम्परा का अनन्त परमाणुवाद प्राचीन सांख्य सम्मत पुरुष-बहुत्वानुरूप प्रकृति बहुत्ववाद से दर नहीं है।" __सांख्य दर्शन के साथ जैन दर्शन का उक्त साम्य होने पर भी कई विषयों में मौलिक मत-भेद है । इस प्रकार विश्व के सम्बन्ध में विविध दार्श निकों के विचार यहाँ बताये गये हैं। जैन दृष्टि से यह जगत् उपसंहार जड़ और चेतन द्रव्यों का विविध परिणमन मात्र है । चेतन द्रव्य अनादि काल से कर्म-पुद्गलों से बद्ध है इसलिए वह स्वकृत कर्मानुसार विविध रूप धारण करता है। जड़ पुद्गलों का नियमबद्ध व्यापार चलता ही रहता है। इस तरह जीव और अजीव ये दोनों तत्त्व अनादि अनन्त हैं। इसलिए सृष्टि की रचना का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है । यह विश्व द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत-नित्य है क्योंकि किसी पदार्थ का निरन्वय विनाश कमी नहीं होता है; तथा पर्याय की अपेक्षा अनित्य है क्योंकि इसकी अवस्थाएँ प्रति पल बदलती रहती हैं। तात्पर्य यह है कि जैन दर्शन के अनुसार यह विश्व अनादि अनन्त होने के साथ ही साथ परिणामी भी है। जैन दर्शन का यह मन्तव्य सर्वाधिक वैज्ञानिक और बुद्धिगम्य है। जैन दृष्टि से ईश्वरःउक्त प्रकरण में यह बता दिया गया है कि जैनदर्शन विश्व को प्रवाह रूप से : अनादि अनंत मानता है। वह पौराणिक या न्याय वैशेषिक दर्शन की तरह विश्वका
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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