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> जैन-गौरव-स्मृतियां *ड
जैन दर्शन एक सर्वथा मौलिक दर्शन है। इसकी विचार पद्धति भी नितान्त मौलिक है । यद्यपि कतिपय विषयों में अन्यान्य दर्शनों से इसकी समानता है तदपि इसमें ऐसे विशिष्ट तत्व विद्यमान हैं जो इसकी स्वतंत्र विचार सरणी के प्रतीक हैं ।
चिरन्तन काल से विश्व के समस्त विचारकों के लिए यह दृश्यमान विश्व एक गूढ पहेली रूप रहा है। इसके सम्बन्ध में नाना प्रकार के प्रश्न विचारकों के मस्तिष्क में उठते हैं । यह विश्व क्या है ? इसका निर्माण किसी ने किया है या यह शाश्वत है ? इस विश्व में दिखाई देने वाले पदार्थों के अतिरिक्त भी किन्ही अदृष्ट तत्वों की सत्ता है या नहीं ? ईश्वर है या नहीं ? यदि है तो उसका स्वरूप क्या है ? आत्मा का अस्तित्व है या नहीं ? यदि है तो उसका स्वरूप क्र्या है ? श्रात्मा और परमात्मा का क्या सम्बन्ध है ? विश्व में दिखाई देने वाले सुख-दुख का हेतु क्या है ? जगत वैचित्र्य का क्या कारण है ? मानव के जीवन का लक्ष्य बिन्दु क्या है ? इत्यादि नाना प्रकार के प्रश्नों से ही तत्वविधा का प्रारम्भ हुआ है । इन रहस्यों को जानने की अभिलाषा से ही तत्वविद्या का उद्गम हुआ है । यही तत्वज्ञान का विषय है ।
संसार के विभिन्न विचारकों ने इन प्रश्नों के
सम्बन्ध में अपने २ विचार प्रकट किये हैं । इन विचारकों के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन करने से यह जाना जा सकता है कि कौन विधारक उक्त प्रश्नों का वुद्धिगम्य सुन्दर समाधान करता है । उक्त प्रश्नों के सम्बन्ध में जैन दर्शन का क्या दृष्टिकोण है, वह इनका क्या समाधान करता है, यह अन्य दर्शनों के साथ तुलना करते हुए संक्षेपसे इस प्रकरण में स्पष्ट करनेका प्रयास किया जाता है:
जैन दृष्टि के अनुसार यह चराघर विश्व जड़ और जीव का - चेतन और अचेतन का विविध परिणाम मात्र है। ये दो तत्व ही समग्र विश्व के मूलाधार हैं। इन दोनों का पारस्परिक प्रभाव ही विश्व का रूप है। ये दोनों तत्व अनादि और अनन्त हैं । न कभी इनकी आदि हुई है और न कभी इनका निरन्वय विनाश होगा | इसलिये यह विश्व प्रवाह अनादि अनन्त है। यह पहले भी था, अब भी है और भविष्य में भी रहेगा
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ऐसा कोई अतीत कालीन क्षण
जन-दृष्टि से
विश्व
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