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जैनगौरव - स्मृतियां
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हुआ और न हो सकता है । अतः यह आवश्यक है कि अब वह अपनी आंख खोले और आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो । अहिंसा का आध्यात्मिक सिद्धान्त उसकी सव विषम समस्याओं का सुगम समाधान करने की क्षमता रखता है । आवश्यकता है केवल उसके हार्दिक अनुशीलन की ।
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मानव जाति के स्थायी सुख स्वप्नों को पूर्ण करने वाली अहिंसा ही है, दुनिया इस सत्य को शीघ्रातिशीघ्र हृदयंगम करे ।
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सत्यवतः -
सत्य और अहिंसा एक दूसरे के साधक हैं। अहिंसा की आराधना के लिए सत्य की आराधना आवश्यक है और सत्य की आराधना के लिए अहिंसा की आराधना आवश्यक है । अतः अहिंसा व्रत के वाद दूसरा व्रत, सत्य व्रत कहा गया है । जैन शास्त्रों में "सच' -". लोगम्मि सारभूयं" "सच्च' खुभगवं" इत्यादि कह कर सत्य की गहरी प्रतिष्ठा की गई है । शास्त्रकारों ने सत्य को भगवान् मान कर उसकी स्तुति की है । सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार हो जाना भगवान् का साक्षात्कार हो जाता है । भगवान् का साक्षात्कार होना अर्थात् अपने सम्पूर्ण संशुद्ध आत्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेना है । इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए प्रय करने वाले मुमुक्षु आत्मा को सत्य की आराधना करनी चाहिये । सम्पूर्ण सत्य की आराधना के लिए प्रयत्नशील गृहत्यागी साधक, क्रोध के वशीभूत होकर, भय से भयभीत होकर, हास- उपहास से प्रेरित होकर या लोभ के चक्कर में फँस कर किसी प्रकार का असत्य भाषण नहीं करता। वह सन, वाणी और कर्म से असत्य का सर्वथा परित्याग करता है । वह न तो स्वयं असत्य भाषण करता है, न दूसरों से असत्य भाषण करवाता है और न असत्य भाषण करने वाले का अनुमोदन करता है । इस तरह त्यागी साधक तीन, करण-तीन योग से असत्य का त्यागी होता है यह सत्य सहाव्रत है ।
संसार व्यवहार चलाने वाला गृहस्थ सम्पूर्ण संत्याराधन के लिए. अपनी कमजोरी अनुभव करता है अतः वह मर्यादित रूप में सत्य-पालन कीं प्रतिज्ञा करता है । वह स्थूल मृपावाद का त्याग करता है । वह कम से कम ऐसे बड़े असत्य भाषण का तो पूर्णतया त्यागी होता है जिनसे महान् अर्थ होने की सम्भावना रहती है । जिस असत्य भाषण से किसी की भारी हानि XOXOXOXXXXXXXX: (१५३) 2000000024XXX