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जैन- गौरव - स्मृतियां'
कल्पना एक-सी नहीं होती । वह व्यक्तिशः भिन्न-भिन्न हुआ करती है ? विकास की तरतमता के कारण प्राणियों की सुख संबंधी कल्पना को दो वर्ग में विभक्त किया जा सकता है । कुछ प्राणी ऐसे हैं जो भौतिक साधनों में सुख मानते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो भौतिक साधनों में सुख न मान कर आत्म- गुणों के विकास में सुख का अनुभव करते हैं । दूसरे शब्दों में सुख के दो रूप हैं - काम-सुख और मोक्ष-सुख । यद्यपि जगत् के अधिकांश व्यक्ति काम-सुख को ही सच्चा सुख मान कर उसके पीछे लट्टू हो रहे हैं मगर वह जीवन का सच्चा ध्येय नहीं हो सकता है । क्योंकि काम-सुख वास्तविक सुख नहीं है । प्राणी अपने ज्ञान के द्वारा उसमें सुख का आरोप करता है । जिन भौतिक साधनों के द्वारा प्राणी सुख का अनुभव करना चाहता है उन्हें प्राप्त करने पर भी उसे अतृप्ति बनी रहती है। चाहे जितने भौतिक साधन जुटा लिए जाँय तब भी अतृप्ति की अतृप्ति बनी रहती है । जहाँ अतृप्ति है वहाँ सुख कैसे हो सकता है ? निष्कर्ष यह है कि काम-सुख वास्तविक सुख नहीं' वरन् सुखाभास है । वह जीवन का साध्य नहीं हो सकता । दूसरे प्रकार का सुख -- मोक्षसुख -- शाश्वत और स्वाधीन है। वह सुख अपने आप में से प्रकट होता है । उसका स्रोत आत्मा ही है । इसमें बाह्य पदार्थों की आकांक्षा नहीं होती अतः स्वतः सन्तोष प्रकट होता है । यही सच्चा आत्यन्तिक सुख है । यही आत्मा का सहज और मूल स्वरूप है । इस सहजानन्दमय आत्म-स्वरूप को प्राप्त करना ही मोक्ष है । इस सुख को प्राप्त करने के लिए जो प्रयास किया जाय वही सच्चा पुरुषार्थ है । निष्कर्ष यह है कि आत्मा के सहजआनन्दमय स्वरूप को प्राप्त करना ही प्राणी के जीवन का ध्येय होना चाहिए ।
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समान रूप से लोक में चार पुरूषार्थ कहे जाते हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष परन्तु वस्तुतः इनमें काम और मोक्ष ये दो तो पुरुषार्थ हैं और अर्थ एवं धर्म उसके साधन हैं । अर्थ के द्वारा काम सुख की प्राप्ति मानी जाती है जबकि धर्म के द्वारा मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। मोक्ष रूपी जीवन- ध्येय की सिद्धि के लिए धर्म-पुरुषार्थ की अपेक्षा रहता है ।
जन्तून
'धर्म' का अर्थ बहुत व्यापक हैं । तदपि साधारणतया 'दुर्गतिं प्रसृतानन् वारयतीति धर्मः " यह धर्म की परिभाषा की जा सकती है । दुर्गति की ओर जाते हुए जीवों को जो बचाता है वह धर्म है ।
NAPURXXXXX: (१३६): NXX