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द्वितीय परिरशेट : जैनकुमारसम्भवकार की जीवन वृत्त, कृतियाँ तथा
जैन काव्य साहित्य की तत्कालीन परिस्थितियाँ एवं प्रेरणाएं -
4.
१.मात्र
नाश के लिए जैन महर्षियों ने एक मात्र साहित्य को साधन बनाया है और धर्म की स्थापना हेतु अपने त्यागी जीवन को लोकहित में समर्पित कर दिया। मनोरंजन को काव्य का उद्देश्य न मानने वाले इन जैन महर्षियों ने अपने अपूर्व प्रतिमा एवं महान सर्जनाशक्ति से अपने साहित्यिक विचार गंगा को प्रवाहित किया है।
जैनमनीषी एवं जैनाचार्य प्रारम्भ में प्राकृत भाषा में ही ग्रन्थ प्रणयन करते थे। प्राकृत जनसामान्य की भाषा थी, अतः लोकपरक सुधारवादी रचनाओं का प्रणयन आचार्यों ने प्राकृत भाषा में ही आरम्भ किया। भारतीय वाङ्मय के विकास में जैन आचार्यों द्वारा किये गये सहयोग की विटरनित्ज ने प्रशंसा करते हुए उल्लिखित किया है।
I was not able to do full justice to the literary Achivement of the
jainas but I hope to have shown that the jainas have cenfributed their full
share to the riligious ethical and scienetific literature of ancient India
भारत के समस्त दार्शनिको ने दर्शनशास्त्र के गूढ और गहन ग्रन्थों का प्रणयन संस्कृत भाषा में आरम्भ किया। जैनाचार्य भी इस दौड़ में पीछे न रह सके। उन्होने प्राकृत के समान संस्कृत को अपनाकर अधिकार पूर्वक ग्रन्थो का प्रणयन आरम्भ किया।
डॉ० भोलाशंकर व्यास ने भी उल्लेख किया है
'जैनों को अपना मत और दर्शन अभिजात वर्ग पर थोपने के साथ ही ब्राह्मण धर्म की मान्यताओं का खण्डन करने के लिए संस्कृत को चुनना