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सूक्तियाँ
किसी काव्य में सूक्तियों का प्रयोग काव्य को जीवन्त बनाना होता है इसके प्रयोग से काव्य को एक आधारभूत बल मिलता है तथा वह कसौटी पर कसे हुए के सदृश दृढ़ता को प्राप्त कर लेता है। सूक्तियाँ प्रायः दो अलङ्कारों से युक्त श्लोक में पाया जाता है अर्थान्तरन्यास
और दृष्टान्त अलङ्कार। काव्यप्रकाश में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार को इस तरह परिभाषित किया गया है “सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते, यन्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्यण परेण वा" अर्थात् जहाँ सामान्य कथन द्वारा विशेष कथन को अथवा विशेष कथन द्वारा सामान्य कथन को समर्थन प्रदान किया जाय वहाँ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार होता है जो समान धर्म वाला अथवा असमान धर्म वाला दो प्रकार का होता है तथा दृष्टान्त अलङ्कार की परिभाषा है- “दृष्टान्त पुनरेतेषां सर्वेषां प्रतिबिम्वनम्" अर्थात् उपमान उपमेय उनके विशेषण और साधारण धर्म आदि का विम्ब-प्रतिविम्वभाव होने पर दृष्टान्त अलङ्कार होता है। जैनकुमारसम्भव में इन अलङ्कारों के प्रयोग से सूक्तियों का समावेश होना स्वाभाविक है। जिसके प्रयोग से यह महाकाव्य उपदेश परक एवं प्रभावकारी हो गया है। यहाँ जैनकुमारसम्भव में प्रयुक्त कतिपय सूक्तियों का उल्लेख किया जा रहा है। यथा
१.
तारै रनभैः प्रभयानभानु, रभ्रानुलिप्तोऽप्यधरीक्रियेत॥१/३०॥
२.
कस्याप्रियः स्यात् पवनेन पारि, प्लवनोऽपि मन्दारतरोः प्रवालः।।१/३१॥ लोला स्वयं स्थैर्यगुणं तु सभ्या-नभ्यासयन्ती कुतुकाय किं न।।१/५३।।
३.