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________________ अष्टम् महिनोद : जैनकुमारसम्भव एक प्रेरणा श्रोत/ नियुक्त किया जाता है। चौदहवें सर्ग में दोनों सेनाएं समरांगण में उतरती है। स्तुति पाठक विपक्षी सेनाओं का परिचय देते है। सेनाओं के तीन दिन के युद्ध का कवित्व पूर्ण वर्णन पन्द्रहवें सर्ग में तथा सोलहवें सर्ग में देवगण भीषण रक्तपात से बचने के लिए भरत तथा बाहुवलि को द्वन्द युद्ध के द्वारा बल-परीक्षा करने को प्रेरित करते भरत और बाहुवलि दोनों युद्धभूमि में है। दृष्टियुद्ध, शब्दयुद्ध, मुष्टियुद्ध तथा दण्डयुद्ध में भरत पराजित होता है। किन्तु वह पराजय स्वीकार नहीं करता। हताश होकर वह बाहुवलि पर चक्र का प्रहार. करता है। किन्तु वह चक्र केवल बाहुवलि का स्पर्श कर लौट आता है। बाहुवलि उसे तोड़ने के लिए मुष्टि उठाकर दौड़ता है। तीनों लोकों को नाश से बचाने के लिए देवता उसे रोक देते है। बाहुवलि उसी मुष्टि से केशलुंचन कर मुनि बन जाता है। भरत समदर्शी अनुज को प्राणिपात करता है और उसके पुत्र को अभिषिक्त कर अयोध्या लौट आता है। सत्तरहवां सर्ग में षड् ऋतुएं भरत की सेवा में उपस्थित होते है। देवताओं से यह जानकर कि मानत्याग से बाहुबलि को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हो गया है, भरत के हृदय में वैराग्य उत्पन्न होता है और उसे गृहस्थी में ही कैवल्य की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार जैनकुमारसम्भव में स्वामी ऋषभदेव के आदर्श चरित्र का चित्रण कविवर जयशेखर सूरि ने किया है उसी प्रकार भरत बाहुवलि महाकाव्य
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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