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________________ अष्टम् अपिट : जैनकुमारसम्भव एक प्रेरणा श्रोत परास्त करता है। पाण्डव, पत्नी तथा माता के साथ हस्तिनापुर लौट आते है। यहीं काव्य का अन्त हो जाता है। ___ इस संक्षिप्त कथानक को मण्डन ने अपने वर्णन चातुरी से तेरह सर्गो में विभक्त कर एक महाकाव्य का स्वरूप दे दिया है। इसमें ऋतुओं, तीर्थो, नदियों, युद्धों आदि का वर्णन विशेष सिद्ध हुए हैं। २. भरत वाहुवलि महाकाव्य इस महाकाव्य के कर्ता का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में प्रयुक्त 'पुष्पोदय' शब्द से कवि ने अपने, जिस नाम को इंगित किया है, वह पंजिका की पुष्पिका के अनुसार पुण्य कुशल है। भरत बाहुवलि की रचना सं० १६५२-१६५९ के बीच हुई थी। काव्य का कथानक षटखण्ड विजय के फलस्वरूप भरत चक्रवर्ती पद प्राप्त करते हैं और वह अपने अनुज तक्षशिला नरेश वाहुवल द्वारा आधिपत्य स्वीकार न किये जाने से क्षुब्ध होकर दूत भेजते है। तक्षशिला नरेश के तेज को देखकर दूत की घिग्गी बँध जाती है- पहला सर्ग। द्वितीय सर्ग में दूत बाहुवल को अपने अग्रज को प्रभुत्व स्वीकार करने की प्रेरणा देते है। सर्ग तीन में बाहुवलि दूत की दुःचेष्टा से क्रुद्ध होकर अपनी अनुपम वीरता तथा भरत की लोलुपता की प्रशंसा करते है। दूत के अयोध्या लौटने के पूर्व ही बाहुवलि का आतंक फैल चुका होता है। चतुर्थ सर्ग में भरत बाहुवलि के २६७
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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