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________________ सप्त छेद्र : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन उनके लिए वैषयिक सुख विष तुल्य है तनोषि तत्तेषु न किं प्रसाद, न सायुगीनायदमीत्वयीश। स्याद्यत्र शक्तेरवकाशनाशः श्रीयेत शूरैरपि तत्र साम।। यहाँ ऋषभदेव अवक्रमित से काम में प्रवृत्त होते है और उचित उपचारों से विषयों को भोगते हैं। एक अन्य स्थान पर शृङ्गार रस का यह उदाहरण- स्वामी ऋषभदेव को देखने के लिए पौर स्त्री के वर्णन प्रसंग में उसकी उत्सुकता की तीव्रता एवं अधीरता तथा आत्मविस्मृति को इस प्रकार दर्शाया है कापि नार्थममितश्लथनीवी प्रक्षरन्निवसनापि न ललज्जे नायकाननानिबेशितनेत्रे जन्यलोकनिकरेऽपि समेता।।६८ किन्तु कालिदासीय कुमार-सम्भव पूर्ण रसवादी कृति है, जिसमें शृङ्गार रस अङ्गी रस है और शृङ्गार के दोनों रूप संयोग तथा वियोग या विप्रलम्भ शृङ्गार के अनुपम उदाहरणों से भरा पड़ा है। कुमार-सम्भव का आठवाँ सर्ग संभाग शृङ्गार की दृष्टि से भारतीय साहित्य में उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। यथा एवमिन्द्रिय सुखस्य वर्त्मनः सेवनादनुगृहीतमन्मथः। शैलराजभवने सहोमया भासमात्रमवसदवृणध्वजः।। २४६
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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