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प्रथम अरिवद्र: जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व/
अर्थात् जहाँ कीडों आदि से खाया हुआ प्रवाल आदि रत्न, रत्न ही कहलाते है, उसी प्रकार जिस काव्य में रसादि की अनुभूति स्पष्ट रूप में होती है, वहाँ दोष के होते हुए भी काव्यत्व की हानि नहीं होती।
कोई भी दोष स्वरूपतः दोष नहीं होता जब तक कि वह रसानुभूति में बाधक नहीं।
इस प्रकार आचार्य मम्मट के 'अदोषौ' पद की आलोचना करके आचार्य विश्वनाथ ने स्वयं अपनी ही आलोचना की है अर्थात् उनका यह मत भी निराधार है।
सगुणौ पद की आलोचना
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार गुण रस के धर्म है। वे शब्द या अर्थ के धर्म नहीं है। इसलिए शब्द या अर्थ में नहीं रह सकते है। ऐसी दशा में रस ही सगुण कहा जा सकता है, शब्द या अर्थ को सगुण नहीं कहा जा सकता है। इसलिए काव्य प्रकाशकार ने जो ‘सगुणौ पद को शब्दार्थों के विशेषण रूप में प्रयुक्त किया है, वह उचित नहीं है।
मम्मटाचार्य भी यह मानते हैं कि गुण रस के धर्म हैं। फिर भी गौण रूप से शब्द और अर्थ के साथ भी उनका सम्बन्ध हो सकता है। काव्यप्रकाश के अष्टम उल्लास में- “गुणवृत्त्या पुनस्तेषां वृत्तिः शब्दार्थर्योमता" लिखकर उन्होंने गौणी वृत्ति से शब्द और अर्थ के साथ भी गुणों के सम्बन्ध का प्रतिपादन किया है और उसी दृष्टि से यहाँ शब्दार्थो के विशेषण रूप