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सप्तम् हरिच्छेद : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि
कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन
प्राम
आश्रय में प्रवेश करते है। अतिथि सत्कार के प्रति पार्वती की भाव प्रवणता के संदर्भ में वर्णन है
तमातिथेयी वहुमानपूर्वया तपर्यया प्रत्युदियाय पार्वती।
भवन्ति साम्येऽपि निविष्टचेतसां वपुर्विशेष्वति गौरवाः क्रियाः।।२० अर्थात् अतिथि सत्कार में प्रवीण पार्वती ने बड़े आदर एवं अत्यन्त श्रद्धा के साथ उस तपस्वी का आगे बढ़कर स्वागत किया। जो लोग अपने मन को भलीभाँति संयमित कर लेते है वे अपने समान वय वाले सत्पुरुषों से मिलते समय भी अत्यन्त आदर का व्यवहार करते है।
किन्तु पति निन्दा के समय पार्वती के परिवर्तित भावों को कवि इस . प्रकार कहता है
निवार्यतामालि! किमप्ययं वटुः पुनर्विवक्षुः स्फुरितोत्तराधरः। न केवलं यौ महतोऽपभाषते शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक्।।२१
अर्थात् हे सखी देखो, इस ब्रह्मचारी का अधर फिर हिल रहा है, सम्भवतः यह फिर कुछ कहना चाहता है। अतः इसे मना कर दो कि अब (यह) कुछ भी न कहें क्योंकि बड़ों का निन्दक ही पाप का भागी नहीं होता बल्कि उसे सुनने वाला भी पाप का भागी होता है।
शंकर जी के साथ पार्वती की शादी तय हो चुकी है किन्तु हिमालय ने अपनी पत्नी, के भावों को जानने के लिए उसकी ओर देखते है
शैलः सम्पूर्णकामोऽपि मेनामुखमुदैक्षत।
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