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षष्ठ अदिद: जैनकुमारसम्भत की कलापक्षीय समीक्षा
१ समीक्षा KES
देवाधिराज इन्द्र द्वारा स्वामी ऋषभदेव की स्तुति प्रसंग में, इन्द्र की भक्ति भाव को पूर्ण रूपेण प्रकाशित करने में समर्थ है
तब हृदि निवसामीत्युक्तिरीशे न योग्या मम हृदि निवसत्वं नेति नेता नियम्यः। न विभुरुभयथाहं भाषितुं तद्यथाहँ ममिकुरुकरुणार्हे स्वात्मनैव प्रसादम्।।२५
अर्थात् मै आपके हृदय में निवास करता हूँ, यह आप (प्रभु) के योग्य नही है मेरे हृदय में आप (प्रभु) निवास करते है, ऐसा हो ही नहीं सकता, क्योंकि मैं क्षुद्र हृदय वाला हूँ और आप विश्व (नियमों के) कोश हैं। इस प्रकार द्वय विधि कहने में असमर्थ मुझ पर हे करूणाकर मुझे अपना समझकर करुणा (दया) कीजिए।
इस प्रकार जैनकुमारसम्भव मनुष्य के आन्तरिक भावों, को चित्रित करने में अद्वितीय है।
(ग) कल्पना के आधार पर समीक्षा
जैनकुमारसम्भव की कथावस्तु अत्यन्त संक्षिप्त है, जो दो या तीन सर्गों की सामग्री है। किन्तु कवि इस काव्य को ग्यारह सर्गो का महाकाव्य वना दिया है।
जहाँ तक जैनकुमारसम्भव में की गयी कल्पनाओं का प्रश्न है, कवि जयशेखर सूरि इसके लिए महाकवि कालिदास के ऋणी है, क्योंकि उन्होंने
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