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________________ षष्ठ. सरिद : जैनकुमारसम्भव की कलापक्षीय समीक्षा जडाशया गा इव गोचरेषु, प्रजानिजाचारपरम्परासु। प्रवर्तयन्नक्षतदंडशाली, भविष्यसि त्वं स्वयमेव गोपः।।। कलाः समं शिल्प कुलेन देव, त्वदेव लब्धप्रभवा जगत्याम्। क्वनो भविष्यन्त्युपकारशीलाः, शैलात्सरत्ना इव निर्झरिण्यः।।" किं शंकरो दारपरिग्रहेण, विरागतां निर्वृतिनायिकायाः। प्रभुः प्रभुतेऽप्यवरोधने स्यानागः पदं लुम्पति न क्रमं चेत्।। और इन्द्र द्वारा पञ्चम सर्ग में वर ऋषभदेव को दिया गया यह उपदेश श्रवणीय है मुक्तिरिच्छति यदुज्झितदारं स्त्री स्त्रियं नहि सहेत स हेतुः। कामयन्त इतरे तु महेलायुक्तमेव पुरुषं पुरुषार्थाः।। तथा इसी पञ्चम सर्ग में इन्द्र की पत्नी शची द्वारा सुमंगला को दिया गया यह उपदेश ध्यातव्य है मास्म तप्यत तपः परितक्षीन्, मा तनूमतनुभिर्वतकष्टैः। इष्टसिद्धिमिह बिन्दति योषि (१८०
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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