________________
पञ्चम, परिवेद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष/
अप्रयुक्तं तथाऽऽम्नातमपि कविभिर्नादृतम्।१४३
अर्थात् कोश आदि में उस अर्थ में पढ़ा हुआ होने पर भी। कवियों द्वारा न अपनाया हुआ शब्द प्रयोग अप्रयुक्त दोष है यथा
यः खेलनाद्धलिषु धूसरोऽपि, कृताप्लवेभ्योधिकमुद्दिदीपे। तारै रनभैः प्रभयानुभानु, रभ्रानुलिप्तोऽप्यधरीक्रियेत।।४
वितेनुषी श्मश्रुवने विहारं, दोलारसाय श्रितकर्णपालिः। स्फुरत्प्रभावारि चिरं चिखेल, तदाननां भोज निवासिनी श्रीः।।१४५ भृशं महेलायुगलेन खेला-रसं रहस्तस्य विलोकमाना। पौषी पुपोषालसतां गतौ यां, निशा न साद्यापि निवर्ततेऽस्याः।।१४६ इति ऋतूचितखेलनकै नै कै- हृतहृदश्चरतोऽस्य यथारुचि। सुकृतसूरसमुत्थधृतिप्रभा- परिचिता अरुचन्नखिला दिनाः।।१४० या कृत्रिमा मौक्तिकमण्डनश्री-रदीयत स्वेदलवैस्तदङ्गे। तत्र स्थितौ सा सहसा विलीना, किं कृत्रिमं खेलति नेतुरग्रे।।१५८
उपर्युक्त निर्देशित श्लोकों में खेलनात्, चिखेल, खेला-रसं खेलनकैः तथा खेलति आदि शब्दों का प्रयोग काव्य में अप्रचलित होने के कारण अप्रयुक्त दोष से युक्त हैं।
२. श्लील दोष- त्रिधेति ब्रीडाजुगुप्सामङ्गलव्यञ्जकत्वाद्।१४९
अर्थात् श्लील दोष १. ब्रीडा २. जुगुप्सा और ३. अमङ्गल के व्यञ्जक होने से तीन प्रकार का होता है। यथा
१७४