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पञ्चम अविवेट : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष
केषाञ्चिदेता वैदर्भीप्रमुखा रीतियोमताः।।११५ वृत्ति, रीति, मार्ग, संघटना तथा शैली प्रायः समानार्थ है। वृत्ति शब्द का प्रयोग उद्भट ने किया है। उन्होंने अपने काव्यालङ्कारसारसंग्रह में उपनागरिका, परुषा तथा कोमला नामक तीन वृत्तियों का विवेचन किया है। इन्ही तीन वृत्तियों को वामन ने तीन प्रकार की रीतियों के रूप में, कुन्तक तथा दण्डी ने तीन प्रकार की मार्गों के रूप में और आनन्दवर्धन ने तीन प्रकार की संघटना के रूप में माना है। अतः उद्भट की वृत्तियाँ, वामन की रीतियाँ, दण्डी और कुन्तक के मार्ग तथा आनन्दवर्धन की संघटना एक ही भाव को व्यक्त करती है।९६ हेमचन्द्राचार्य के अनुसार पूर्वोक्त गुणों में यद्यपि वर्ण, रचना, समासादि नियत (निश्चित) हैं तथापि कहीं-कहीं वक्ता, वाच्य (प्रतिपाद्य विषय) तथा प्रबन्ध के औचित्य से वर्णादि का अन्य प्रकार का प्रयोग भी उचित माना जाता है।१७ कहींकहीं वाच्य तथा प्रबन्ध दोनों की उपेक्षा करके केवल वक्ता के औचित्य से ही रचना होती है।
जैसे- 'मन्थायस्तार्णवाम्भ.........।१८
इत्यादि। कहीं वक्ता तथा प्रबन्ध दोनों की उपेक्षा करके केवल वाच्य के औचित्य से ही रचनादि होती है। जैसे
प्रौढच्छेदानुरूपोच्छल...........९९
इत्यादि तथा कहीं-कहीं वक्ता तथा वाच्य की उपेक्षा करके प्रबन्ध
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