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________________ पञ्चम,डिलद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलड्डार, गुण एवं दोष/ यहाँ विरुद्ध शन्धि के त्याग से ‘फलैः' क्लृप्ताहारः" में विसर्गों के अलोप से और समासहीन होने से इस श्लोक में "कान्ति" नामक गुण अर्थव्यक्ति जहाँ पर अर्थ को समझने में किसी तरह का विघ्न नहीं रहता वहाँ 'अर्थव्यक्ति' गुण समझना चाहिए। यथा- त्वत्सैन्यरजसा सूर्ये लुप्ते रात्रिरभूद्दिवा।।६ सूर्यास्त होने से रात्रि का आगमन स्वाभाविक है। इसको समझने के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। अतएव इस पद्य में अर्थव्यक्ति नामक गुण है। प्रसन्नता- जिस गुण के कारण पढ़ते ही शीघ्र अर्थाववोध हो जाय उसे "प्रसन्नता' अथवा प्रसक्ति कहते हैं।७७ यथा- कल्पद्रुम इवाभाति वाञ्छितार्थप्रदो जिनः। यहाँ यह कहने से कि जिनदेव कल्पतरु की भांति अभिकषित फल के देने वाले हैं उनकी दानशीलता अतिशीघ्र स्पष्ट हो जाती है। अतः यहाँ पर प्रसन्नता नामक गुण है। समाधि जहाँ पर एक वस्तु के गुण का आधान अन्य वस्तु के साथ किया जाता है, वहाँ समाधि नामक गुण होता है।
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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