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________________ पञ्चम, परिमोद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष वाक्य दूषित होता है न ही उनके ग्रहण से पुष्ट। तथाहि- "कवितार: संदर्भेष्वलङ्कारान् व्यवस्यन्ति न्यस्यन्ति च, न गुणान्। नचालंकृतीनाम पोद्धाराहाराभ्यां वाक्यं दुष्यति पुष्यति वा ।" इसे उन्होंने उदाहरण द्वारा पुष्ट किया है तथा यह भी कहा है कि गुणों का तो त्याग व ग्रहण करना सम्भव ही नहीं है। "गुणानामपोद्धाराहारौ तु न संभवत् इति" ।५५ इस प्रकार गुण व अलङ्कार दोनों अलग-अलग तत्त्व हैं। इन दोनों का आश्रय भी भिन्न-भिन्न है। अतः भट्टोद्भट का अभेदवादी मत अनुचित आगे वे वामन के भेदवादी मत को भी उद्धृत करते हुए व्यभिचार युक्त बताते हैं तथा तर्क व उदाहरण प्रस्तुत कर स्वमत की पुष्टि करते हैं। यह भी पूर्वोल्लिखित है कि वामन ने गुण व अलङ्कार में भेद माना है। परन्तु हेमचन्द्र इसका खण्डन सोदाहरण निरूपित करते है कि “गतोऽस्तमर्को भातीन्दुर्यान्ति, वासाय पक्षिणः" इत्यादि में प्रसाद, श्लेष, समता, माधुर्य, सौकुमार्य, अर्थव्यक्ति आदि गुणों का सद्भाव होने पर भी उसकी काव्य-व्यवहार में प्रवृत्ति नहीं हो रही है। यथा "अपि काचिच्छुता वार्ता तस्यौनिघुविधायिनः। इत्तीव प्रष्टुमायते तस्याः कर्णान्तमीक्षणे।।" इस पद्य में उत्प्रेक्षा अलङ्कार मात्र होने पर तीन-चार गुणों के
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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