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पश्चम
द: जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष
परन्तु अलङ्कारों की स्थिति अपरिहार्य नहीं है।
आचार्य आनन्दवर्धन ने गुण के स्वरूप का सूक्ष्म विवेचन किया तथा यह बतलाया कि गुण शब्दार्थ अथवा शब्दविन्यास आदि के धर्म नहीं अपितु काव्य की आत्मा अर्थात् रस के धर्म हैं। उन्होंने गुण तथा अलङ्कार के भेद को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि काव्य के आत्मभूत रसादिध्वनि के आश्रित रहने वाले धर्म गुण होते है और अलङ्कार काव्य के अभंगभूत शब्द तथा अर्थ के धर्म होते हैं। इस प्रकार आनन्दवर्धनाचार्य ने गुणों को रसाश्रित तथा अलङ्कारों को शब्द तथा अर्थ के आश्रित धर्म मानकर उनके भेद का उपपादन किया है। ४७
आचार्य मम्मट ने इनका ही अनुसरण किया है तथा उद्भट व वामन से पृथक् गुणों को रस के स्थिर (अचल ) धर्म माना है। गुण का लक्षण देते हुए वे लिखते है कि आत्मा के शौर्यादि धर्मों की तरह काव्य में जो प्रधान रस के उत्कर्षाधायक तथा अचल स्थिति वाले होते हैं, वे गुण कहलाते हैं।"
प्रायः काव्यप्रकाशकार का अनुसरण करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने रस का उत्कर्ष करने वाले हेतुओं को गुण कहा है। ये गुण उपचार (गौणरूप) से शब्द और अर्थ के उत्कर्षाधायक होते हैं । ४
तात्पर्य यह है कि गुण मुख्यतः रस के ही धर्म हैं; गौणरूप से वे उस रस के उपकारक शब्द और अर्थ के धर्म कहे जाते हैं। यहाँ पर गुण व दोष का रसाश्रयत्व सिद्ध करते हुए हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं
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