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पञ्चम दिद: जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष
(छ) स्थायीभाव
"विरुद्धैरविरुद्धैर्वा भावैर्विच्छिद्यते न यः।
आत्मभावं नयत्यन्यान् स स्थायी लवणाकरः।।१० अर्थात् जो रति आदि भाव अपने से प्रतिकूल अथवा अनुकूल किसी प्रकार के भावों के द्वारा विच्छिन्न नहीं होता और लवणाकर या नमक की खान (समुद्र) के समान अन्य सभी भावों को आत्मसात् कर लेता है, वह स्थायी भाव कहलाता है।
दशरुपक में उल्लिखित धनञ्जय के अनुसार यह आठ प्रकार का होता
"रत्युत्साहजुगप्साः क्रोधो हासः स्मयो भयं शोकः। शममपि केचित्पाहुः पुष्टिर्नाटयेषु नैतस्य।।११
१. रति, २. उत्साह, ३. जुगुप्सा, ४. क्रोध, ५. हास, ६. विस्मय, ७. भय तथा ८. शोक, कुछ आचार्य शम को भी 'नवम्' स्थायी भाव कहते है किन्तु उस शम की पुष्टि रुपकों में नहीं होती। इस तरह आचार्य धनञ्जय नवाँ शात्त रस नहीं स्वीकारते।
अब हम जैनकुमारसम्भव में प्रयुक्त रसों का निरुपण करेंगे
जैनकुमारसम्भव में काव्य के नायक ऋषभदेव के विवाह तथा कुमारसम्भव से सम्बन्धित प्रसंग होने के कारण इसमें शृङ्गार रस के प्राधान्य की अपेक्षा थी, परन्तु महाकवि अपने निवृत्तिवादी दृष्टिकोण के कारण इस
नजर रस के शव