SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभाव है [क्रिया में-"असावादित्यो न व्यरोचत" आदि सूर्यादि की उत्पत्ति, "अयं वै सोमेनेजानात्" इत्यादि में प्रकार तथा "वायुर्वं क्षेपिष्ठः" इत्यादि फल आदि भेद होते हैं । ब्रह्म में उत्पत्ति आदि का सर्वथा अभाव है, क्योंकि वह नित्य, सदैकरस और स्वयं फलस्वरूप है] । ब्रह्म के “यतो वा इमानि" इत्यादि जो प्राकृत अर्थवाद वाक्य हैं, वे केवल माहात्म्यज्ञान के लिए ही उपयुक्त हैं । माहात्म्य ज्ञान का वर्णन चतुर्थ अध्याय (के चतुर्थ पाद के "आदित्यादिमतयः" सूत्र) में करेंगे (अर्थात् भगवत्प्राप्ति रूप साक्षात्कार में, भक्ति द्वारा उन वाक्यों की उपयोगिता बतलावेंगे)। "आत्मेत्येवोपासीत, प्रात्मा वाऽरे द्रष्टव्यः" इत्यादि में उपासना और साक्षात्कार आदि की मनोव्यापरता ही वर्णित है । विचार की ज्ञानोपयोगिता का भी (तृतीय अध्याय, तृतीय पाद के उभयव्यपदेशाधिकरण में) चिन्तन करेंगे। किं चौपनिषदज्ञानस्यापि कर्मोपयोगित्वम्, “यदेव विद्यया क रोति श्रद्धयोपनिषदा वा तदेव वीर्य वत्तरं भवति" इति । अतएव ब्रह्मविदामेव जनकादीनां कर्मणि सर्व देव सान्निध्यम्, अन्यथा आभासत्वमेव । न च ब्रह्मरूपात्म विज्ञाने देहाद्यध्यासाभावेन कर्तृत्वाभावात् कर्मानधिकार इति वाच्यम् । निरध्यस्तैरेव देहादिभिः कर्मकरणसंभवात् । अत एव जीवन्मुक्तानां सर्वे व्यापाराः । तथा च स्मृतिः "नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यन् शृण्वन् स्पृशत् जिघनश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वसन् । प्रलपन विसृजन् गृह्णन्नुन्मिषन् निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इव धारयन् । ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥” इति । अतो ब्रह्मविदामेव कृतं कर्म शुभफलं भवति । अतो धर्म विचार कारणमपि ब्रह्म जिज्ञास्यमेव । तस्मान्न गतार्थत्वानुपयोगी । "यदेव विद्यया करोति" इत्यादि श्रुति में उपनिषद् ज्ञान की कर्मोपयोगिता भी बतलाई गई है । ब्रह्मवेत्ता जनक आदि को कर्म में। ही देव प्राप्ति हुई । औपनिषद ज्ञान के अभाव में तो कर्माभास ही होता है । यह नहीं कह सकते कि-ब्रह्मरूप आत्मविज्ञान में देहाव्यास का अभाव (विदेहता) होने से कत्तुं त्व का प्रभाव हो जायगा, अतः कर्म में अधिकार नहीं रह जायगा । वस्तुतः देह आदि के अनध्यस्त होने से फलानुसंधान राहित्य मात्र होता है, कृत कर्म का प्रभाव नहीं होता । अतएव जीवन्मुक्तों के सारे कार्य होते हैं, जैसा कि स्मृति का वचन भी है-"तत्त्ववेत्ता ऐसा अनुभव करते हैं
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy