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________________ ( ६५० ) फल प्रकरण के अन्त में अनावृत्ति की चर्चा करने बादरायणाचार्य का अभिप्राय, 'जीव का अस्तित्व समाप्त होना ही परम फल है', ऐसा नहीं कह सकते । ब्रह्मवेत्ता की पर प्राप्ति फलरूप से बतलाकर, उसका स्वरूप सर्व कामभोग श्रुति में निरूपण किया गया है । वह भोग भी अपने-अपने अधिकार के अनुसार भक्तों के द्वारा निवेदित विषयों की स्वीकृति के रूप में होता है। वही परमफल है, इसी से भक्त की अनावृत्ति ज्ञात होतीहै । यदि भक्त की आवृत्ति मानेंगे तो, परमफल की बात असंगत हो जाएगी। भक्ति, ज्ञान से दुर्बल है, इस शंका के निराकरण के लिए सूत्रकार ने सूत्र में दोनों की आवृत्ति का शास्त्रीय दृष्टि से समान उल्लेख किया है। पुष्टिमार्गीय भक्त विशेष प्रेम प्रवर्तक मोह को निवृत्ती करने वाले भगवद् वेणु शब्द का श्रवण कर भगवान के निकट पहुँचकर फिर नहीं लौटते, मर्यादामार्गीय वैदिक शब्द का श्रवण कर तदनुरूप उक्त साधना करके मुक्त होकर फिर नहीं लौटते । परमफल प्राप्ति स्नतः ही अनावृत्ति एक स्वाभाविक बात है । अब अपने वक्तव्य का विस्तार नहीं करेंगे। जानीत परमं तत्त्वं यशोदोत्संगलालितम् । यदन्यदिति ये प्राहुरासुराँस्तानहो बुधाः ।। ___ यशोदा की गोद में पालित गोपाल हो पर ब्रह्म हैं, उनके अतिरिक्त किसी और को परम तत्त्व बतलाने वालों को आसुरी भावों से मोहित मानना चाहिए। नानामतध्वान्त विनाशनक्षमो, वेदान्तहृत्पद्मविकासने पटुः। आविष्कृतोऽयं भुविभाष्य भाष्करो, मुधाबुधा धावत नाऽन्यत्मसु ॥ अनेक मतों के अन्धकार को दूर करने वाला वेदान्तरूपी हृतकमल को विकसित करने में कुशल यह भाष्य रूपी भाष्कर उदित हो गया है, बुद्धिमानों अब इधर-उधर मार्गों पर नहीं दौड़ना चाहिये। पुरन्दरमदोद्भवप्रचुरवृष्टिसम्पीडित, स्वकीयवर गोकुलाऽवन परायणो लीलया । - स्मितामृत सुवृष्टिभिः परिपुपोष तान्यो गिरि, दधार च स एव हि श्रुतिशिरस्सु संराजते
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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