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________________ ( ६४२ ) जगद्व्यापाखर्ज प्रकरणादसंनिहितत्वाच्च ।४।४।१७॥ ब्रह्मणा सह भोगकरणं लौकिक व्यापारयुतमुत नेति संशये, तदयुतमिति पूर्वपक्षस्तथा सति मुक्तित्वभङ्गात् पूवोक्तमनुपपन्नं इति प्राप्ते आह-जगदित्यादि । पूर्वोक्तस्य जगत्संबंधी लौकिको यो व्यापारः कामवाङ्मनसां तद्वज . तद्रहितं भोगकरणम् । तत्र हेतु आह प्रकरणादसंनिहितत्वाच्चेति । ब्रह्मविदाप्नोति परमित्युपक्रमेण मुक्तिप्रकरणात् तत्र लौकिक व्यापारोऽसंभावितः । किंच . लीलायाः कालमायाद्यतीतत्वेन प्राकृतं जगद् दूरतरमितोऽपि हेतो तत्संभवः । कदाचिल्लोके लीलाप्रकटनेच्छायां तदधिष्ठानत्वयोग्ये मथुरादिदेशेऽति शुद्धे गोलके चक्षुरिन्द्रियभिव स्थापयित्वा लीलां करोति । तदापि लोलामध्यपातिनां न लौकिक व्यापार संभवः । न हि चक्षुरिन्द्रियं गोलककार्य करोति । न वा तन्नाशेनश्यति । एतत्सर्व, दिवीव चक्षुराततमिति श्रुतिव्याख्याने विद्वन्मण्डने प्रपंचितम् । किंच छांदोग्ये—'भूमैव सुखं भूमात्वेवविजिज्ञासितव्यः" इत्युक्त्वा भूम्नोलक्षणमाह--"यत्रनान्यत्पश्यति नान्यच्छणेति नान्यद् विजानाति स भूभा" इति । अत्र नान्यद्विजानाति एताक्तैब चारितार्थेऽपि यदिन्द्रियव्यापारो निषिद्धस्तत्राप्यन्यविषयकस्तेन भगवद्विषयकः सः सिद्धो भवतीति जगद्व्यापारराहित्यं सिद्धम् । तत्रतेन भगवत एव स्वतंत्र फलत्वमुक्तं भवति । न हि सुखस्यान्यत् प्रयोजनमस्ति । संशय होता है कि ब्रह्म के साथ जो जीव का भोग होता है वह जागतिक होता है या नहीं ? कह सकते हैं कि लोकिक होता है, किन्तु लौकिक मानने से उसका मुक्तित्व नष्ट हो जाएगा। पूर्वोक्त बात भी असंगत हो जावेगी । इस पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि पूर्व में जिस लौकिक जगत्संबन्धी व्यापार की चर्चा है, उस कामिक, वाचिक, मानसिक व्यापारों से रहित यह ब्रह्म जीव भोग होता है। "ब्रह्मविदाप्नोति परम्" इत्यादि उपक्रम से जो मुक्ति प्रकरण प्रारम्भ किया गया है, वह लौकिक व्यापार वाला नहीं हो सकता। लीला काल माया आदि से अतीत होती है, प्राकृत जगत् से बहुत दूर होती है। इसलिए भी वह जागत्तिक नहीं है। जब कभी लोक में भगवान अपनी लीला प्रकट करना चाहते हैं तो लीला करने योग्य अतिशुद्ध मथुरा आदि देशों को स्थापना गोलक में स्थित चक्ष, इन्द्रिय के समान करके लीला करते हैं । वहाँ की लोला में लौकिक व्यापार नहीं होता। जैसे कि नेत्रेन्द्रिय गोलक के कार्य नहीं करती और न गोलोक के नाश होने पर वह नष्ट ही होती है, इस सबका हमने "दिवीव चक्ष राततम् श्र ति के व्याख्यान में विद्वन्मण्डन में विस्तार किया है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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