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________________ ( ६३६ ) भाविक ज्ञान क्रिया से, उस प्रकार का भोग नहीं कर सकता, अपितु भगवान उसमें प्रविष्ट होते हैं तभी यह जीव भी वैसा, उनके समान हो जाता है और सब भोग करता है । जैसे कि प्राचीन घृतपूर्ण जलते हुए दीपक की बत्ती से नया दीप जल जाता है और उसके समान ही हो जाता है उसमें वैसी ही कार्यक्षमता आ जाती है, उसकी भी घृत के अधीन स्थिति हो जाती है वैसे ही भक्त की कार्यक्षमता की बात है । अर्थात् जैसे दीपक दूसरे विशेष दीपक से प्रज्वलित होने के बाद अपने में निहित घृत के आधार पर प्रज्वलित रहता है, वैसे ही भक्त भी भगवान के द्वारा उबुद्ध किए जाने पर अपने अन्तस्थ प्रेम के आधार पर भोगानुभव करता रहता है । श्रुति में ऐसा स्पष्ट उल्लेख भी है-''भर्ती से बढ़ाया हुआ, सुशोभित होता है, एक ही देव अनेकों बार प्रविष्ट होता है । ' इत्यादि। ___ सर्वान् कामानित्युक्तत्वाद् यस्य कामस्य भोगो यथा निवेशे सति, तत्तथा तदा निवेश इति बहुधा निवेश उक्तः । अयं निवेशो नान्तर्यामित्वेन तस्यैकधव प्रवेशात् । निसर्गतः सर्वेषां जीवानां भगवान भवत्येव प्रभुर्यद्यपि तथापि यं स्वीयत्वेन बृणुते तस्य विवाहितः पतिरिव भर्ता सन् वरणजस्नेहातिशयेन भक्तेनापि भ्रियमाणः सन्, स भक्त इव स्वयमपि तं स्वस्मिन् वित्ति । अत एव स्नेहराहित्येनायोगोलकादिकं विहाय प्रदीपं दृष्टान्तमुक्तवान् व्यासः । अतएव देवपदमुक्तम् । स्वरूपानन्ददानाद् भावोद्दीपनात् पूतनादि मुक्तिदानेन स्वमाहात्म्य द्योतनाद् वैकुण्ठादिस्थितेश्च । तदुक्तं निरुक्तेः दिवोदानाद् वा, दीपनाद् वा, द्योतनाद् वा, द्युस्थानो भवति, इति वा यो देवे इति भक्तानां कामभोजनार्थ क्रीडाकरणात् क्रीडायामेव जयेच्छाकरणाद् भक्तैः सह व्यवहार करणाद् भक्तेषु स्वमाहाभ्येच्छादिद्योतनाद्, “न पारयेहं", "न त्वादृशी प्रणयिनी" इत्यादिभिः स्तुतिकरणाद् भक्त प्रपत्ति दर्शनेन कालीयदमनादौ मोदकरणात् तेष्वेवभक्तिमदकरणात् ते स्वप्नेऽपि प्रियमेव पश्यन्ति इति स्वप्न केरणात्तेषां कान्तिकरणादिच्छाकरणाद् वा तन्निकटे गमनादपि देवः । तदुक्तं धातुपाठे-"दिवुक्रीडाविजगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु" इति । एवं सति युक्तमेव तेषां तंथात्वमिति हि शब्देनाऽह । "सर्वान् कामान्" कहने से ज्ञात होता है कि जिस काम का भोग जैसे उचित समझते हैं उस समय वैसे निवेश करते हैं, इसलिए बहुधा निवेश की बात कही गई है । भगवान का यह निवेश अन्तर्यामी रूप से नहीं होता, इस
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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