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________________ भूतंव्यापि वैकुण्ठं तद्गुहायाँ हृदयाकाशे प्रकटी करोति तत् परमव्योमशब्दे-. नोच्यते । अलौकिक प्रयोगेण तस्यालौकिकत्वं ज्ञाप्यते । यथा स्वस्थापितं वस्तु अवश्यं दर्शनयोग्यं भवति तथात्र भगवानपीतिज्ञापनाय निहितभित्युक्तम् । तथा च परमाप्नोति इति पदविवृत्तिरूपत्वादस्य गुहायां परमेव्योम्नि निहितं योवेद स, नास्य प्राणा उत्कामन्ति इहैव सभवलीयन्ते ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति" इति श्रुति उक्तरीत्या परमाप्नोतीत्यर्थः संपद्यते । ___ ज्ञानमार्गीय, अक्षरज्ञान होने से एकमात्र अक्षर प्राप्ति ही करते है भक्तों को पुरुषोत्तम प्राप्ति तक हो जाती है। भगवद्गीता में स्पष्ट कहा भी है"एवं सतत् युक्ता ये" इस प्रश्न पर "मय्या वेश्यमनो ये मां, ये त्वक्षरमनि-- देश्यं" इत्यादि उत्तर दिया गया है । श्रोभागवत में-"भक्त्याहमेकया ग्राह्यः" तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य," ऐसा उपक्रम करके "न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह" इत्यादि से भी स्पष्ट उल्लेख है। ब्रह्नवेत्ता को यदि भगवान वरण कर लेते हैं तभी उनमें भक्ति का उदय होता है। भक्ति के प्रचुरभाव होने पर स्वयं उसके हृदय में प्रकट होकर अपने स्थान वैकुण्ठ को उनके हृदय के गुहाकाश में प्रकट करते हैं, यही बात “परमेब्योमन" शब्द से कही गई है । अलौकिक प्रयोग से उसकी अलौकिकता ज्ञात होती है। जैसे कि अपनी रक्खी हुई वस्तु अवश्य ही दृष्टिगोचर हो जाती है वैसे ही भगवान भी हैं, यही बतलाने के लिए "निहितं" पद का प्रयोग किया गया है। "परम आप्नोति" इस पद को विवृत्ति के रूप से यह अर्थ प्रकट होता है कि-गुहास्थित परम व्योम में निहित ब्रह्म को जो जानता है उसके प्राण उत्क्रमण नहीं करते यहीं लीन हो जाते हैं ब्रह्म होकर ब्रह्म को प्राप्त करता है" यह श्रुति उक्त रीति से परम प्राप्ति का उल्लेख करती है। ___ अथपुष्टिमार्गेऽङ्गीकृतस्य व्यवस्थामाह-"सोऽमृनुते" इत्यादिना अत्रायमणिसंधिः, यथास्वयंप्रकटीभूयलोके लीलांकरोति तथाऽत्यनुग्रहवशात् स्वान्तः स्थितमपि भक्तं प्रकटीकृत्य तत् स्नेहातिशयेनतद्वशः सन् स्वलीलारसानुभवं कारयतीति स भक्तो ब्रह्मणा परब्रह्मणा पुरुषोत्तमेन सह सर्वान् कामानश्नुत इति । चकारादुक्ता श्रुतिः स्मृतयश्च संगृह्यन्ते । एवं सति ज्ञानमार्गीयाणामक्षर प्राप्तिदेव, मक्तोनामेव पुरुषोत्तम प्राप्तिरितिसिद्धम् । ___ "सोऽश्नुते" इत्यादि से पुष्टिमार्ग में अंगीकृत जीव की व्यवस्था बतलाते हैं। इस वाक्य का तात्पर्य है कि जैसे भगवान स्वयं प्रकट होकर लोक में
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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